मुजफ्फरनगर: उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर की मीरापुर सीट पर उपचुनाव का बिगुल बज चुका है। सभी प्रमुख दलों के प्रत्याशी मैदान में उतरकर जनसंपर्क में जुट गए हैं। हार-जीत तो 13 नवंबर को मतदान के बाद तय होगी, लेकिन उससे पहले सबसे बड़ा इम्तिहान मुस्लिम मतों में विभाजन का रहेगा। इस बार चार प्रमुख दलों से मुस्लिम प्रत्याशियों के मैदान में उतरने और मुख्य तौर से केवल एक गैर मुस्लिम प्रत्याशी रालोद-भाजपा से चुनावी रण में रहने के कारण मुकाबला रोचक हो गया है।
बावजूद मुस्लिम मतदाताओं का रुख ही चुनावी नतीजे तय करेगा। हालांकि गत चुनावों में इस सीट पर जाट-मुस्लिम और दलित-मुस्लिम समीकरण बनते रहे हैं। मुजफ्फरनगर में 2013 के दौरान हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद से सियासी समीकरणों ने नई करवट ली थी। मीरापुर विधानसभा सीट के गांव कवाल से दंगे की चिंगारी पूरे जनपद में फैल गई थी। इसने जनपद सहित पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया, लेकिन दंगे के बाद 2022 में फिर से बदले राजनीतिक समीकरण के तहत मीरापुर सीट पर बीजेपी चित हो गई थी। सपा के साथ गठबंधन में लड़े रालोद प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी।
नामांकन के बाद उपचुनाव के लिए फिर से सियासी शतरंज बिछ चुकी है। इस बार रालोद का गठबंधन भाजपा के साथ है। रालोद के सामने सबसे बड़ी चुनौती फिर से जीत दर्ज कराने की है। मीरापुर सीट पर 3.23 लाख से अधिक मतदाता है, जिनमें सवा लाख से अधिक मुस्लिम मतदाताओं की संख्या है। समाजवादी पार्टी सहित बसपा, आजाद समाज पार्टी और एआइएमआइएम ने चार मुस्लिम प्रत्याशी क्रमशः सुम्बुल राना, शाह नजर, जाहिद हुसैन और अरशद राणा को चुनावी मैदान में उतारा है। वहीं रालोद, भाजपा की ओर से मिथलेश पाल मैदान में है।
मीरापुर विधानसभा सीट का परिणाम मतदाताओं के ध्रुवीकरण और विभाजन से निकल कर आएगा। 2013 दंगे के बाद से भारतीय जनता पार्टी प्रत्येक चुनावी मुद्दे को मतदाताओं के ध्रुवीकरण से हल करती रही है। चुनावी माहौल कुछ भी बने लेकिन भाजपा प्रत्याशी अंत में हमेशा मतदाताओं का ध्रुवीकरण करा कर ही लाभ हासिल करते रहे।
इस बार भाजपा सीधे चुनाव मैदान में नहीं है। बल्कि गठबंधन के घटक दल रालोद का प्रत्याशी चुनाव लड़ रहा है। बावजूद भाजपा की रणनीति ध्रुवीकरण के बूते ही जीत हासिल करने की है। उधर, मुख्य मुकाबले में उतरी समाजवादी पार्टी और बसपा का प्रयास मुस्लिम मतदाताओं के विभाजन को रोकने का रहेगा। अगर सपा और बसपा में से कोई भी एक मुस्लिम मतों का विभाजन रोक वोटर को अपनी और आकर्षित कर पाई तो रालोद-भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी।
परिसीमन के बाद मोरना से मीरापुर विधानसभा कहलाने वाली इस सीट पर मुस्लिम नेताओं का भी वर्चस्व रहा है। मीरापुर विधानसभा सीट पर 1967 से अब तक पांच मुस्लिम नेता जीत दर्ज करा चुके हैं। वर्ष 1980 में तत्कालीन मोरना सीट पर जनता ऐस से मेहंदी असगर, 1985 में कांग्रेस से सईदुज्जमा और 1989 में अमीर आलम ने जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत दर्ज कराई थी।
वहीं 2007 में रालोद के टिकट पर कादिर राना और और 2012 में बसपा के टिकट पर जमील अहमद कासमी जीते थे। इन मुस्लिम नेताओं की जीत में अलग-अलग चुनावी परिस्थितियों के तहत जाट और दलित मतदाताओं की भूमिका अहम रही थी।