यहां के स्थानीय मीडिया ने देहरादून के डोईवाला इलाक़े में एक व्यक्ति पर एक विधवा महिला और उसके बच्चों का धर्मांतरण करने और फिर उससे शादी करने के बारे में ख़बरें प्रकाशित कीं.
डोईवाला पुलिस ने विश्व हिंदू परिषद से जुड़े एक व्यक्ति की शिकायत पर धर्मांतरण क़ानून (उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता अधिनियम-2018) के तहत मामला दर्ज किया है.
पुलिस का कहना है इस मामले की जांच की जा रही है. लेकिन क़ानून के जानकार इस मामले में एफ़आईआर दर्ज करने के अधिकार पर ही सवाल उठा रहे हैं.
इस कहानी के केंद्र में हैं डोईवाला की केशवरपुर बस्ती के इंदिरा नगर में रहने वाली नूरजहां उर्फ़ सुशीला. चार बच्चों की मां सुशीला को ‘बहला-फुसला कर धर्म परिवर्तन’ कराने और फिर शादी करने का आरोप नईम पर है.
मूल रूप से रांची की रहने वाली सुशीला आठ-नौ साल पहले अपने ‘आदमी’ सदरूल ख़ान (लिव-इन पार्टनर) के साथ काम की तलाश में देहरादून आ गई थीं.
सुशीला पहले सदरूल ख़ान के साथ मज़दूरी करती थीं लेकिन तीन साल पहले कैंसर से सदरूल की मौत हो गई. जिस समय सदरूल की मौत हुई तब सुशीला गर्भवती थीं.
इसके बाद वो कबाड़ बीनकर और भीख मांगकर गुज़ारा करने लगीं. इसी दौरान उनकी मुलाक़ात नईम से हुई थी.
वो कहती हैं कि उनके चौथे बच्चे के जन्म के बाद वह बेहद कमज़ोर हो गई थीं. मोहल्ले वालों ने उनकी देखरेख की. उस दौरान नईम ने उनका और उनके बच्चों का ख़्याल रखा.
साल भर पहले सुशीला धर्म परिवर्तन कर नूरजहां बन गईं और उन्होंने नईम के साथ निकाह कर लिया. उनके चार बच्चों का भी धर्म परिवर्तन करवा दिया गया है.
सुशाली का बड़ा बेटा क़रीब 16 साल का है. वो नईम के साथ ही उनकी कबाड़ की दुकान पर काम करता है.
सुशाली कहती हैं कि उन्हें भगवान या अल्लाह से मतलब नहीं है, उनके लिए सब एक है. वह नूरजहां पुकारे जाने पर भी जवाब देती हैं और सुशीला कहे जाने पर भी.
नूरजहां कहती हैं कि अब बच्चे खुश हैं और वह भी ख़ुश हैं. इसके साथ ही वो सवाल पूछती हैं, “मुसलमान के बच्चे थे मुसलमान के पास आ गए, इसमें किसी को क्या दिक़्क़त हो सकती है?”
यहां हमें विकास भी मिले, जो नूरजहां की बहन के बेटे हैं. विकास भी कबाड़ बीनकर लाते हैं और नईम को बेचते हैं. वह इस मामले पर छपी ख़बरों पर हंसते हैं कि उनकी मौसी को बहला-फुसला पर उनका धर्म बदलवा लिया गया.
विकास कहते हैं, “मौसी कोई बच्ची है जो कोई बहला-फुसलाकर कोई काम करवा लेगा? सोच-समझ कर ही किया होगा उन्होंने फ़ैसला.”
विकास के अनुसार, उनके पहले वाले मौसा भी मुसलमान थे और अब वाले (नईम) भी मुसलमान हैं. उन्हें कभी हिंदू-मुस्लिम का कोई फ़र्क महसूस नहीं हुआ. पहले भी मौसी का परिवार उनका परिवार था, अब भी है.
लेकिन कुछ लोगों को इस मामले से फ़र्क पड़ा है. विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संतोष राजपूत ने इस मामले में पुलिस को शिकायत कर धार्मिक भावनाएं आहत होने का केस दर्ज करवाया है.
डोईवाला पुलिस ने इस पर उच्चाधिकारियों से राय मांगी, तो देहरादून ज़िलाधिकारी ने क़ानूनी सलाह लेने के बाद इस मामले में केस दर्ज कर जांच आगे बढ़ाने को कहा है.
इसके बाद बीते 13 अप्रैल को थाना डोईवाला में उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2018 के तहत मामला दर्ज कर लिया गया.
डोईवाला थानाध्यक्ष राजेश साह ने इस मामले के बारे में पूछे जाने पर कहा, “मामले की जांच चल रही है और उसी के आधार पर आगे कार्रवाई की जाएगी.”
इस बारे में पता चलने के बाद नूरजहां ने भी 18 अप्रैल को थाने में एक प्रार्थना पत्र देकर कहा कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से धर्म परिवर्तन किया है और वह अपने पति नईम के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं चाहती हैं.
नईम कहते हैं कि वह (नूरजहां) ही चाहती थीं मुसलमान बनना, वरना उन्हें उनके धर्म से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था. वहां मौजूद एक शख़्स ने कहा, “यह तो वही बात हो गई जी… मियां-बीवी राज़ी लेकिन लठ बजाएगा काज़ी.”
काशीपुर में रहने वाले अधिवक्ता नदीम उद्दीन नैनीताल हाई कोर्ट में वकालत करते हैं. वह क़ानून से जुड़े विभिन्न मामलों पर 44 क़िताबें लिख चुके हैं.
नदीम उद्दीन कहते हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2018 के तहत सिर्फ़ पीड़ित (जिसका धर्म परिवर्तन किया गया हो) या उसके रक्त संबंधी ही शिकायत दर्ज करवा सकते हैं.
2022 के संशोधन (उत्तराखंडड धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम, 2022) में सज़ा तो बढ़ाई गई है लेकिन इसमें भी ऐसा प्रावधान नहीं है कि कोई भी भावनाएं आहत होने के नाम पर किसी के भी ख़िलाफ़ केस दर्ज करवा दे.
उनके अनुसार, इसलिए यह केस तो बनता ही नहीं है, लेकिन उत्तराखंड में सारे नहीं तो धर्म परिवर्तन से जुड़े ज़्यादातर मामले पीड़ित नहीं, तीसरे पक्ष, की ओर से ही दर्ज करवाए गए हैं.
लेकिन सवाल ये है कि अगर यह क़ानूनी रूप से सही नहीं हैं तो फिर दर्ज किस आधार पर किए जा रहे हैं?
वो कहते हैं, “धर्मांतरण जैसे मुद्दे असली समस्याओं से ध्यान भटकाने की कोशिशें हैं और साथ ही यह सुनिश्चित करने की कवायद भी है कि धार्मिक रूप से कट्टर हो चुके विभिन्न समूह अपने अभियान में लगे रहें.”
जुयाल के मुताबिक़, “कोशिश यही दिख रही है कि धार्मिक रूप से संवेदनशील मुद्दे अगले साल होने वाले चुनावों तक गर्म रहें.