लखनऊ । विपक्षी दलों के इंडिया एलायंस गठबंधन को बसपा सुप्रीमो मायावती ने धता बताकर बड़ी लकीर खींच दी है। शुरुआत से ही आपसी खींचतान में घिरे गठबंधन का हिस्सा बनने के बजाय बसपा अपने जनाधार को वापस लाने पर केंद्रित रहना चाहती है। मायावती का यह कदम उनके उत्तराधिकारी आकाश आनंद के राजनीतिक भविष्य के लिए भी निर्णायक साबित हो सकता है। हालांकि सियासी जानकार इस फैसले को पार्टी और कुनबे को बचाने से जोड़ रहे हैं।
अपने जन्मदिन पर बसपा सुप्रीमो का कार्यकर्ताओं के नाम संदेश पूरी तरह गठबंधन को लेकर पार्टी की रणनीति पर केंद्रित रहा। उन्होंने अपने संबोधन में 13 बार गठबंधन का जिक्र किया। यूपी में सीटों के बंटवारे को लेकर सपा और कांग्रेस में जारी जोर-आजमाइश में उलझने के बजाय उन्होंने खुद को किंगमेकर की भूमिका में बरकरार रखने का निर्णय लिया है। उन्होंने अपने संदेश में साफ कर दिया कि केंद्र में जिस दल की सरकार बनेगी, बसपा अपनी शर्तों पर उसे समर्थन देगी। उनके इस फैसले से इंडिया एलायंस गठबंधन को अब तक का सबसे बड़ा झटका लगा है, क्योंकि बिना यूपी फतह किए केंद्र में सरकार बना पाना आसान नहीं होगा।
बताना जरूरी है कि अपने अब तक के अपने राजनीतिक सफर में मायावती ने सत्ता की मास्टर-की अपने पास रखने से कम कीमत पर कभी समझौता नहीं किया। उनकी पूर्व की गठबंधन की सरकारों में भी जब सत्ता का हस्तांतरण होने की नौबत आई तो बसपा ने अपने हाथ वापस खींच लिए। अपने संदेश में उन्होंने विरोधी दलों को यह भी आभास करा दिया कि उनका वोट बैंक भले की कम हुआ हो, लेकिन दलित बसपा को ही अपनी पार्टी मानते हैं। कैडर में सेंध की आशंका की वजह से उन्होंने विरोधी दलों की साजिश से गुमराह नहीं होने को लेकर आगाह भी किया।
बसपा सुप्रीमो ने कांग्रेस से बातचीत की अटकलों को भी सिरे से खारिज कर दिया। इससे साफ हो गया कि बसपा को अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस ने कोई भी ठोस पहल नहीं की। वहीं, गठबंधन के नेता के चयन को लेकर अब तक एक-राय भी नहीं बन सकी है। सियासी जानकारों के मुताबिक मायावती खुद को किसी भी अन्य दल के नेता से कमतर मानकर समझौता नहीं करेंगी। यदि कांग्रेस व अन्य दल मायावती को सम्मानजनक प्रस्ताव देते अथवा उनको अपना नेता मानने को तैयार हो जाते, तो शायद बिगड़ी हुई बात बन जाती। फिलहाल तो अब बसपा का साथ मिलना कांग्रेस और सपा के लिए दूर की कौड़ी बन गया है।
मायावती के गठबंधन में शामिल होने से साफ इंकार करने पर विपक्षी दलों के गठजोड़ के हालात और बिगड़ सकते हैं। अब तक जो भी दल गठबंधन के साथ जाने को आतुर हैं, उनको दोबारा अपने फैसले पर विचार करना पड़ सकता है। यूं कहें कि बसपा के बिना गठबंधन को यूपी में सफलता मिलना आसान नहीं होगा। इसका प्रमाण पिछले लोकसभा चुनाव में सामने आ चुका है, जब बसपा और सपा गठबंधन ने मिलकर 15 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं अकेले चुनाव लड़ रही कांग्रेस केवल रायबरेली सीट ही बचा सकी थी। राम मंदिर की लहर में विरोधी दलों का चुनाव में खाता खुलना भी मुश्किल हो जाए, तो हैरत की बात नहीं होगी।