नई दिल्ली. कुछ लोग इस बारे में जानते होंगे और कुछ नहीं भी. जैसे, देश की संसद होती है, वैसे ही राज्यों में विधानमंडल होता है. संसद के दो सदनों- राज्य सभा और लोकसभा जैसे ही राज्य विधानमंडल में भी सदन होते हैं- विधानसभा और विधानपरिषद. देश के संविधान में इस तरह का प्रावधान है. हालांकि, संवैधानिक प्रावधान के बावजूद कुछ राज्यों ने विधानमंडल के दो सदनों वाले पूर्ण स्वरूप को अपनाया हुआ है, लेकिन कई प्रदेशों ने नहीं. वहां आम तौर पर एक ही सदन होता है- विधानसभा. ऐसे में कुछ सवाल स्वाभाविक हो सकते हैं कि आखिर संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद सभी राज्यों ने विधानपरिषद को क्यों नहीं अपनाया? दूसरा- जिन राज्यों ने इस सदन को अपनाया, वहां इनकी क्या स्थिति है? और तीसरा- ये राज्यसभा से किस तरह अलग हैं? इन सवालों के जवाब यहां जानने की कोशिश करते हैं. बस, 5-प्वाइंट में.
भारत के संविधान में प्रावधान होने के बावजूद देश के सिर्फ 6 राज्यों में ही विधानपरिषदें काम कर रही हैं. ये राज्य हैं- आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तेलंगाना. इससे पहले असम, मध्य प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और जम्मू-कश्मीर में भी विधानपरिषदें रह चुकी हैं. लेकिन फिर उन्हें भंग कर दिया. अब इन सभी राज्यों में सिर्फ विधानसभाएं हैं.
सभी राज्यों ने क्यों नहीं अपनाई विधानपरिषद
संविधान में राज्यों के लिए दो सदनों वाले विधानमंडल का प्रावधान तो है. लेकिन यह उनके लिए अनिवार्य या बाध्यकारी नहीं है. इसीलिए अधिकांश राज्यों ने एक सदन वाले विधानमंडल का विकल्प चुना है. हालांकि, इसमें एक अन्य मसला वित्तीय-संसाधनों का भी है. चूंकि दो सदनों वाले विधानमंडल के संचालन में खर्च भी तुलनात्मक रूप से अधिक आता है और राज्यों के पास वित्तीय संसाधनों की अक्सर कमी रहती है. तीसरा ये भी है कि विधानपरिषद की शक्तियां बहुत ही सीमित होती हैं, इसलिए भी इसे अपनाने से राज्य परहेज करते है. चौथा मामला संवैधानिक प्रावधान का है, जिसमें कहा गया है कि विधानपरिषद संबंधित राज्य की विधानसभा के एक-तिहाई सदस्यों की संख्या वाली ही होगी और इसमें कम से कम 40 सदस्य होने जरूरी हैं. मतलब, 120 सदस्यों से कम सदस्य जिस राज्य की विधानसभा में हैं, वहां विधानपरिषद नहीं हो सकती.
विधानपरिषद का गठन या समाप्ति कैसे
भारत के संविधान के अनुच्छेद 169 में इसका विवरण है. इसके मुताबिक, अगर कोई राज्य विधानपरिषद या उसे समाप्त करना चाहता है, तो उसे विधानसभा में इस बाबत संकल्प लाना होगा. यह संकल्प कम से दो-तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए. इसके बाद उसे देश की संसद के पास भेजा जाता है. केंद्र सरकार इसके अनुरूप संसद में कानून लाती है. उसके पारित होने के बाद संबंधित राज्य से पारित संकल्प के अनुरूप व्यवस्था अमल में आती है. मतलब, वहां विधानपरिषद गठित या समाप्त की जानी है, तो वह हो जाती है.
राज्यसभा से कैसे अलग विधानपरिषद
राज्यसभा जैसी होने के बावजूद राज्यों की विधानपरिषद काफी अलग होती है. इसके सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष निर्वाचन से होता है. उनका कार्यकाल छह साल होता है. हर दो साल में एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं. यही, कुछ चीजें राज्यसभा और विधानपरिषद में समान हैं. बाकी, अलग बहुत कुछ है. जैसे- सदस्यों के चुनाव का मामला ही है. राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव विभिन्न राज्यों के विधानसभाओं के सदस्य करते हैं. कुछ राज्यसभा-सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करते हैं. लेकिन विधानपरिषद के सदस्यों का चुनाव 5 स्तरों पर होता है. मसलन- विधानपरिषद की कुल सदस्य-संख्या के एक-तिहाई (करीब 33%) सदस्यों को उस राज्य के विधानसभा-सदस्य चुनते हैं. बाकी एक-तिहाई सदस्यों का चुनाव नगर-पालिका, नगर-निगमों के सदस्य करते हैं. बाकी सदस्यों का चुनाव तीन स्तरों पर होता है. पहला- उच्च-शिक्षण संस्थानों के स्नातकों द्वारा. दूसरा- शिक्षकों और तीसरा- राज्यपाल के मनोनयन द्वारा. इस तरह 5 स्तरों पर विधानपरिषद के सदस्य चुने जाते हैं. यह व्यवस्था अंग्रेजों ने 1935 में बनाई थी. तब से ऐसी ही चली आ रही है.
शक्तियां भी कुछ नहीं, फिर क्यों जारी
राज्यसभा की तुलना में विधानपरिषद की शक्तियां भी बहुत न्यून हैं. जैसे- सरकार के गठन या उसकी बर्खास्तगी में विधानपरिषद की कोई भूमिका नहीं होती. इसमें अविश्वास प्रस्ताव भी नहीं लाया जा सकता. वित्त-विधेयक पर इस सदन की राय कोई विशेष अहमियत नहीं होती. सामान्य विधेयक भी, जो विधानपरिषद में पेश किया जाता है, उस पर अंतिम फैसला विधानसभा का ही मान्य होता है. विधानपरिषद किसी विधेयक को खारिज कर सकती है, उस पर संशोधन भी सुझा सकती है, लेकिन उसे मानना या न मानना विधानसभा के लिए बाध्यकारी नहीं है. वित्त-विधेयक पर विधानपरिषद 14 दिन चर्चा करती है, अपने सुझाव देती है, लेकिन उनमें भी अंतिम निर्णय विधानसभा का ही चलता है. राज्य सरकार के मंत्री विधानपरिषद के सदस्यों के सवालों का जवाब देने के लिए भी बाध्य नहीं होते. बस, यहां विभिन्न मसलों पर चर्चा जरूर हो सकती है. इसके बावजूद कुछ राज्यों ने विधानपरिषद को अपनाया हुआ है, तो इसके पीछे मुख्य रूप से 1 ही कारण बताया जाता है. वह ये कि इस सदन में विभिन्न राजनीतिक दल अपने ऐसे तमाम सदस्यों को शामिल करा सकते हैं, जो विधानसभा का चुनाव हार गए या लड़े ही नहीं. इतना ही नहीं, विधानपरिषद के सदस्यों में से मुख्यमंत्री जिसे चाहें, मंत्री भी बना सकते हैं. मुख्यमंत्री भी इस सदन से हो सकते हैं. जैसे- महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अभी विधानपरिषद के ही सदस्य हैं. बस, इन्हीं कारणों से अब पश्चिम बंगाल, राजस्थान और तमिलनाडु में विधानपरिषदों को अस्तित्व में लाने की फिर तैयारियां भी की जा रही हैं.