रोहतक : साल 1983 के दिसंबर माह में सोनीपत लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में प्रतिष्ठा की जंग चौधरी चरण सिंह और ताऊ देवीलाल के बीच हुई थी, लेकिन बाजी इंदिरा कांग्रेस (कांग्रेस आई) के प्रत्याशी ने मार ली थी।
हरियाणा के सियासी इतिहास में जितना रोमांच भरा है, उससे ज्यादा यहां मूंछ की लड़ाइयां चर्चा में रही हैं। वर्चस्व की ऐसी कई जंग आम चुनाव के साथ ही राज्य में हुए लोकसभा के उपचुनावों में भी देखने को मिलती हैं। मसलन, 1983 के दिसंबर महीने में सोनीपत लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव को ही लें।
इसमें प्रतिष्ठा की जंग चौधरी चरण सिंह और ताऊ देवीलाल के बीच हुई थी और बाजी इंदिरा कांग्रेस (कांग्रेस आई) के प्रत्याशी ने मार ली। यह चुनाव भजनलाल और चौधरी बंसीलाल के एक साथ प्रचार करने के कारण भी सुर्खियों में रहा था।
1982 में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान ही लोकदल के राष्ट्रीय नेता चौधरी चरण सिंह और प्रदेश के बड़े सियासी चेहरे चौधरी देवीलाल में खटापट हो गई थी। इस चुनाव में कांग्रेस को 38 और लोकदल गठबंधन को 34 सीट मिली थीं। लेकिन, चौधरी चरण सिंह और देवीलाल में तल्खी इतनी बढ़ गई कि ताऊ खुद नौ विधायकों के साथ लोकदल छोड़कर जनता पार्टी में शामिल हो गए।इसके तकरीबन एक साल बाद ही सोनीपत लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव हो गया। तब नौ विधानसभा हलकों को समेटने वाला यह इलाका लोकदल का गढ़ माना जाता था, क्योंकि चरण सिंह की यहीं ससुराल थी और वह यहां के जाट व किसान नेताओं के सीधे संपर्क में रहते थे। उन्होंने इस उपचुनाव में अपने निकट सहयोगी किताब सिंह मलिक को टिकट दे दिया।
उस समय इस सीट पर करीब सवा सात लाख मतदाता थे, जिनमें तीन लाख के करीब जाट वोटर थे। चौधरी चरण सिंह किसान और जाट वोट को अपने पक्ष में मानते थे। इसी बीच, उस समय महम के विधायक रहे चौधरी देवीलाल ने जनता पार्टी उम्मीदवार के रूप में लोकसभा उपचुनाव के लिए ताल ठोंक दी।
इससे यह उपचुनाव रोमांचक हो गया और पूरे देश की नजर इस पर टिक गईं। अमर उजाला के उस समय के अंक पलटने पर इस उपचुनाव की रोचक गुणा गणित समझ में आती है। यह पहला ऐसा चुनाव था जिसमें चौधरी भजनलाल की होशियारी भरी चाल सबकी समझ में आने लगी थी और उन्हें सूबे की सियासत का चाणक्य माना जाने लगा था।
वह मुख्यमंत्री थे और सोनीपत से कांग्रेस को जिताने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी। उन्होंने इंदिरा कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर तीसरे जाट नेता रिजकराम दहिया को मैदान में उतार दिया।
रिजकराम के लिए जाट वोट साधने की जिम्मेदारी जहां केंद्रीय मंत्री रहे चौधरी बंसीलाल ने संभाल ली, वहीं गैर जाट मत साधने के लिए खुद भजनलाल ने विधानसभावार जनसंपर्क शुरू किया। एक ओर जहां लोकदल और जनता पार्टी के उम्मीदवार मूंछ की लड़ाई लड़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस (आई) के उम्मीदवार के लिए भजनलाल जीत की बिसात बिछा रहे थे।
इसी के तहत हरियाणा लोकदल के बड़े नेता मुख्तियार सिंह अफनी पार्टी की राह से अलग जाकर कांग्रेस के रिजकराम के पक्ष में वोट मांगने उतर पड़े थे। 23 दिसंबर 1983 को जब वोट पड़ रहे थे, तब चरण सिंह और देवीलाल के समर्थक बूथ पर आमने-सामने थे, जबकि भजनलाल की टीम ने कांग्रेस के वोट मतपेटियों तक पहुंचाने में ताकत झोंक रखी थी।
तीन दिन बाद जब परिणाम आया तो कांग्रेस के उम्मीदवार ने रिजकराम दहिया ने मुकाबला करीब 12,500 वोट से जीत लिया था। चौधरी देवीलाल को नंबर दो पर संतोष करना पड़ा।