पटना: बिहार की राजनीति फिलवक्त बहुत उलझी हुई है। खासकर एनडीए की राजनीति की बात करें तो गठबंधन के भीतर तमाम दल सहज नहीं हैं। जनता दल यू की बात करें तो उनके मुताबिक राजनीति को रास्ता नहीं मिल पा रहा है। जेडीयू की इस असहजता को लेकर चर्चा यह है कि जेडीयू और भाजपा के मिलन का एक शर्त यह भी था कि लोकसभा और विधान सभा का चुनाव एक साथ हो।
राजनीतिक गलियारों में इस बात को लेकर अक्सर चर्चा होती रही कि राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पहले नंबर की पार्टी से तीसरे नंबर की पार्टी बनने की कसक तो थी। यह अलग बात थी कि तीसरे नंबर की पार्टी रहने पर भी बीजेपी ने उन्हें सीएम के रूप में प्रोजेक्ट किया। पर यह कहीं उपकार करने जैसा लगा।
राजनीतिक गलियारों में भी बीजेपी के इस बड़प्पन की चर्चा हुई। पर जेडीयू के भीतर इस बात का मलाल था कि इस तीसरे नंबर की पार्टी बनाने की वजह भी अपरोक्ष रूप से भाजपा ही हैं। तर्क यह दिया जा रहा था कि मोदी के हनुमान चिराग पासवान ने जेडीयू की लंका में आग लगाई। यह बात तब और भी मुखर हुई कि जब जेडीयू ने भाजपा से नाता तोड़कर राजद के साथ महागठबंधन की सरकार बनाई। तब जेडीयू की तरफ से यहां तक की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह आरोप लगाया कि भाजपा जेडीयू को तोड़ना चाहती थी। इस कार्य हेतु आरसीपी लगे हुए थे।
राजनीतिक गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि विधायकों के नंबर गेम को लेकर नीतीश कुमार परेशान भी थे। वे चाहते भी थे कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर जेडीयू विधाएक की संख्या बढ़े। इस कार्य के लिए कहा जाता है कि नीतीश कुमार ने अशोक चौधरी को यह जिम्मेदारी दी गई। पर वह इस बार असफल रहे। ज्ञात हो कि अशोक चौधरी ने विधान परिषद में कांग्रेस की उपस्थिति को शून्य कर दिया था। तब चारों विधान पार्षद जेडीयू के साथ हो गए थे।
तीसरे नंबर की पार्टी का दंश जेडीयू को महागठबंधन में भी झेलना पड़ा। विधायकों की कम संख्या को लेकर लोचा तब सामने आया जब लोकसभा सीट शेयरिंग पर बात होने लगी। तब महागठबंधन की स्टेयरिंग पर बैठे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने लोकसभा सीटों के बंटवारे का आधार विधायकों की संख्या बना डाला। लेकिन तब जेडीयू ने इस समीकरण को नकार लोकसभा की सीटिंग सीट को आधार बनाया। नतीजा यह हुआ कि महागठबंधन का साथ छोड़ना पड़ा और एनडीए के साथ शामिल होना पड़ा।
अब जेडीयू का एनडीए में आने की वजह क्या रही होगी और समझौता के बिंदु क्या क्या रहे होंगे, यह तो वे लोग जानते होंगे। लेकिन राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा जरूर हुई कि नीतीश कुमार लोकसभा और राजसभा चुनाव एक साथ करना चाहते हैं। अब जेडीयू ऐसा क्यों चाहता था उसके कई कारण भी हैं। पहली जरूरत तो यह थी कि जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी से छुटकारा चाहती है।
दूसरी बड़ी बात यह भी है कि नरेंद्र मोदी के चेहरे और राम लहर में चुनावी बेड़ा पार भी करना चाहती है। लोकसभा और विधान सभा साथ-साथ होने से 2029 तक नरेंद्र मोदी पीएम रहेंगे तो नीतीश कुमार भी अगले पांच सालों के लिए सीएम रहेंगे। एक बड़ा कारण यह भी है कि जेडीयू के भीतर यह अविश्वास भी है कि 2025 के विधान सभा तक हालात कितनी ठीक-ठाक रहेगी या नहीं भी। ऐसा इसलिए भी कि बिहार में सरकार तो बनी पर मंत्री वही बने जो भाजपा ने चाहा। नीतीश कुमार की पसंद को दरकिनार किया गया।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडे का कहना है कि इस बार जो समझौता हुआ होगा वह तो नीतीश कुमार और भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व ही जनता होगा। पर इतना तो कहा जा सकता है कि लोकसभा के साथ विधान सभा का चुनाव होता है तो फायदा में नीतीश कुमार ही रहेंगे। ऐसा इसलिए कि बार-बार गठबंधन बदलने से नीतीश कुमार की इमेज पर प्रभाव पड़ा है। एक विश्वसनीय चेहरा नहीं रह गए। ऐसे में नरेंद्र मोदी के चेहरे और बीजेपी के सांगठनिक स्थितियों का लाभ लेकर जेडीयू अपनी स्थिति को बेहतर कर सकती है। लेकिन जेडीयू के अंदरखाने में क्या चल रहा है यह तो उसके रणनीतिकार ही जानते होंगे। पर भाजपा के रुख से तो लगता है कि लोकसभा और बिहार विधान सभा का चुनाव एक साथ तो नहीं होने जा रहा है।