नई दिल्ली : सर छोटूराम ने अपने एक विरोधी को पत्र लिखा था, “मैं जीसस क्राइस्ट की इस सीख में विश्वास नहीं करता कि अगर कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम उसके सामने अपना बायाँ गाल आगे कर दो.”
उन्होंने कहा था, “मेरा विश्वास मूसा की सीख में अधिक है, आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत. अगर आप मेरे ऊपर पत्थर फेकेंगे तो मैं आपके ऊपर उससे बड़ा पत्थर फेंकने से पीछे नहीं हटूँगा.”
उनकी ज़ुबान हमेशा से ही तेज़ रही और उन्होंने उसे छिपाने की कभी कोशिश नहीं की. सन 1882 में रोहतक ज़िले के साँपला गाँव में एक जाट परिवार में जन्मे छोटूराम का असली नाम राम रछपाल था. परिवार में सबसे छोटे होने के कारण सब लोग उन्हें छोटू कहकर पुकारते थे.
स्कूल में भी उनका यही नाम लिखवाया गया. रोहतक में शुरुआती पढ़ाई करने के बाद छोटूराम ने साल 1905 में दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास की. सर छोटूराम पीसीएस परीक्षा में बैठे लेकिन गणित कमज़ोर होने के कारण वो उसे पास नहीं कर सके.
इसके बाद वो कालाकांकर के राजा के निजी सचिव बन गए लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने वहाँ से इस्तीफ़ा देकर क़ानून की पढ़ाई शुरू की और लाहौर के रंगमहल मिशन हाई स्कूल में अध्यापक बन गए. सर छोटूराम के जीवनीकार मदन गोपाल अपने लेख ‘रहबर-ए-आज़म’ में लिखते हैं, “पंजाब के इतिहास में मध्य पंजाब यानी लाहौर, अमृतसर और मुल्तान से जुड़ा हिस्सा ही वहाँ की राजनीति का केंद्र रहा है.
छोटूराम के उदय के बाद ही पिछड़े हुए इलाके अंबाला डिवीजन ने, जहाँ पंजाब की 50 फ़ीसदी से अधिक हिंदू आबादी रहती है, मध्य पंजाब के प्रभुत्व को बहुत हद तक कम किया.” साल 1916 में उन्होंने साप्ताहिक समाचारपत्र ‘जाट गज़ेट’ शुरू किया. इसी दौरान वो आर्य समाज और कांग्रेस के सदस्य बने.
पहले विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग किया और सेना में नए लोगों की भर्ती के उनके प्रयासों में सहायता की. साल 1920 में जब कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी नीतियों में परिवर्तन किया और अहिंसा और असहयोग का मार्ग अपनाया तो उन्होंने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया.
इमेज कैप्शन,पीएम नरेंद्र मोदी सर छोटूराम पर एक आयोजित प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए. साल 1937 में पंजाब सरकार में सर छोटूराम मंत्री पद पर रहे थे. सर छोटूराम ने पहली बार 1921 में पंजाब काउंसिल का चुनाव लड़ा लेकिन उसमें उनकी हार हुई.
लेकिन अपने दूसरे प्रयास में वो पंजाब काउंसिल के सदस्य बनने में कामयाब रहे. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और हर चुनाव में उनकी जीत हुई. सन 1924 में उन्हें पंजाब का कृषि मंत्री बनाया गया. एक वर्ष बाद वो पंजाब के शिक्षा मंत्री बने. सन 1936 में उन्हें पंजाब काउंसिल का अध्यक्ष बनाया गया.
उसी वर्ष जब फ़ज़्ले हसन की मृत्यु हुई तो वो सिकंदर हयात ख़ाँ के साथ यूनियनिस्ट पार्टी के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे. सन 1937 में यूनियनिस्ट पार्टी ने पंजाब का चुनाव जीता और उसने सिकंदर हयात ख़ाँ के नेतृत्व में सरकार बनाई. इस सरकार में छोटूराम पहले तो विकास मंत्री बने और फिर उन्होंने राजस्व मंत्री का पद संभाला.
अपनी किताब ‘पंजाब पॉलिटिक्स एंड द रोल ऑफ़ सर छोटूराम’ में प्रेम चौधरी लिखती हैं, “सिकंदर हयात ख़ाँ के कैबिनेट में सर छोटूराम की हैसियत नंबर 2 की थी. उन्होंने पंजाब के गवर्नर को बाकायदा सूचित किया था कि सर छोटूराम उनके उत्तराधिकारी होंगे.”
प्रेम चौधरी लिखती हैं, “लेकिन सिकंदर हयात की मौत के बाद सर छोटूराम ने यूनियनिस्ट पार्टी का नेतृत्व संभालने से इनकार कर दिया था. उनको ये अच्छी तरह मालूम था कि पंजाब जैसे मुस्लिम बहुल प्रदेश में एक मुस्लिम को ही प्रीमियर पद पर स्वीकार किया जाएगा.”
नतीजा ये हुआ कि जब जनवरी, 1943 में सिकंदर हयात ख़ाँ की मृत्यु हुई तो उनकी जगह पर ख़िज़्र हयात ख़ान टिवाना को पंजाब का प्रीमियर बनाया गया लेकिन इसके बावजूद सर छोटूराम की राजनीतिक महत्ता में कोई कमी नहीं आई. बीस के दशक में लाला लाजपत राय न सिर्फ़ पंजाब बल्कि देश के बड़े नेता हुआ करते थे. विचारधारा के तौर पर वो कांग्रेस नेता मदनमोहन मालवीय के बहुत करीब थे. लाजपत राय छोटूराम से बहुत प्रभावित थे.
डीके वर्मा अपनी किताब ‘छोटूराम, लाइफ़ एंड टाइम्स’ में लिखते हैं, “छोटूराम के मंत्री बनने के बाद लाला लाजपत राय ने उनसे मुलाकात कर उन्हें पंजाब की राजनीति में अपने विचारों में ढालने की कोशिश की. उन्होंने उन्हें सलाह दी की वो यूनियनिस्ट पार्टी से नाता तोड़ राष्ट्रवादियों का साथ देना शुरू कर दें.”
लाला लाजपत राय के इस प्रस्ताव पर सर छोटूराम का जवाब था कि वह यूनियनिस्ट पार्टी से नाता तोड़ने को तैयार हैं. बशर्ते राष्ट्रवाद को संप्रदायवाद से जोड़ कर ना देखा जाए.
उन्होंने कहा, “पंजाब में हिंदू असमंजस में हैं. उनको एक विकल्प चुनना होगा. अगर वो राष्ट्रवादी बनना चाहते हैं तो उन्हें मुसलमानों और सिखों से अपने सारे मतभेद भुलाकर सिर्फ़ अंग्रेज़ों से लड़ना होगा. अगर वो संप्रदायवादी बनना चाहते हैं तो वो सिर्फ़ मुसलमानों से लड़ने के बारे में सोचें. उनकी वर्तमान स्थिति ये है कि वो इन दोनों के बीच फ़ैसला नहीं ले पा रहे हैं.” पंजाब में यूनियनिस्ट सरकार के शासन के दौरान एक बड़े किसान आंदोलन की नींव रखी गई. पंजाब सरकार ने प्रदेश के किसानों के बीच और ग्रामीण इलाक़ों में जागरूकता पैदा करने का प्रयास किया. उन्होंने किसानों की गिरवी ज़मीन को छुड़वाया और पंजाब में भाखड़ा नंगल बांध बनवाने की शुरुआत की.
उन्होंने कर्ज़ माफ़ी एक्ट-1934, साहूकार पंजीकरण एक्ट-1938, कृषि उत्पाद मंडी एक्ट-1938 और व्यवसाय श्रमिक एक्ट-1940 पास करवाए. डीके वर्मा लिखते हैं, “किसानों के मुद्दे पर ही उनकी तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वैवेल से एक झड़प हुई. उनको इस बात पर बहुत आश्चर्य हुआ कि एक प्रांतीय मंत्री जिनको वो जानते भी नहीं, उनके मुँह पर उनसे कह सकता था कि पंजाब सरकार उनके प्रस्ताव से सहमत नहीं है.”
मुद्दा था गेहूँ की कीमत पर नियंत्रण का. छोटूराम ने न तो हिंदुओं का समर्थन किया और न मुसलमानों का. उनके ह्रदय में हमेशा हर वर्ग के पिछड़े हुए लोग ही थे.
वर्मा लिखते हैं, “छोटूराम वामपंथी नहीं थे, उन्होंने ग़रीबों और किसानों के लिए जो कुछ किया, कम लोगों ने किया. अलग-अलग विचारधारा के लोग जैसे केएम मुंशी, एमएन रॉय जैसे कम्युनिस्ट, मौलाना आज़ाद और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता भी उनके प्रशंसक बन गए थे.”