नई दिल्ली : पाकिस्तान अपने ही ‘चक्रव्यूह’ में फंस गया है। पाकिस्तान ने पहले अफगान तालिबान का पोषण किया और फिर काबुल में सत्ता हथियाने में मदद की, लेकिन नतीजा क्या निकला? जो कल तक दोस्त था, वह आज दुश्मन बन बैठा है। बीते साल 25 दिसंबर को अफगान क्षेत्र में हवाई हमले करना पाकिस्तान की बड़ी सैन्य धृष्टता थी। जैसे ही साल समाप्त हुआ अफगानिस्तान के 15 हजार लड़ाकों ने चढ़ाई कर पाकिस्तान के सैनिकों पर हमला कर उनके कई चेकपोस्ट ध्वस्त कर दिए।
अफगान अधिकारियों ने पाकिस्तान के साथ ‘काल्पनिक सीमा रेखा’ को लेकर ऐतिहासिक विवाद का संदर्भ देते हुए कहा कि वह रेखा ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में खींची गई थी। 2,600 किलोमीटर लंबी सीमा अब हमले, रक्तपात और कूटनीतिक तनाव का सक्रिय स्रोत बन गई है। काबुल के तालिबान शासकों ने जवाबी कार्रवाई की, क्योंकि ऐसा नहीं करने से उनकी आंतरिक मतभेदपूर्ण स्थितियों पर असर पड़ सकता था, जिसमें हाल ही में एक शक्तिशाली मंत्री की हत्या भी शामिल थी। लंबे समय से चले आ रहे तनाव के नई ऊंचाई पर पहुंचने के कारण अब यह आसानी से रुकने वाला नहीं है। कूटनीतिक वार्ता फिर से शुरू हो गई है, लेकिन आसार अच्छे नहीं दिख रहे, क्योंकि समस्या की जड़ें ऐतिहासिक हैं। समाधान आसान नहीं है। इससे दक्षिण और मध्य एशिया तथा पहले से ही तनावग्रस्त पश्चिम एशिया की सीमा वाले क्षेत्र में एक नया तनाव बढ़ गया है।
इससे वैश्विक स्तर पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए एक नई चुनौती भी खड़ी हो गई है, जिनके बारे में माना जाता है कि वह इस क्षेत्र में अमेरिका के विरोधियों रूस, चीन और ईरान के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के इच्छुक हैं। चीन अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की सुरक्षा और क्षेत्र में महत्वपूर्ण आर्थिक निवेश की स्थिति पर भी बारीकी से नजर रखे हुए है। यह भारत के लिए भी एक संकेत है। भारत ने कई परियोजनाओं पर काम करते हुए अफगान तालिबान के साथ कामकाजी संबंध विकसित किए हैं। अफगानिस्तान में भारतीय उपस्थिति पाकिस्तान को बेचैन करती है, क्योंकि वह दो विरोधियों के बीच निकटता को खुद के लिए खतरे के रूप में देखता है। पूरी दुनिया ने काबुल शासन को मान्यता बेशक नहीं दी है, लेकिन वह किसी न किसी स्तर पर इसे देख ही रहा है। ऐसे में, अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर अशांत जनजातीय क्षेत्र, जो अल-कायदा और आईएसआईएस सहित विभिन्न आतंकी समूहों का गढ़ बना हुआ है, पर चिंता के साथ नजर रखने की जरूरत है। मौजूदा संकट की बात करें, तो पाकिस्तान व तालिबान के बीच सीमा पर पहले से ही उग्र झड़पें होती रही हैं। इस्लामाबाद का कहना है कि हवाई हमले में उसके अशांत दक्षिण वजीरिस्तान की सीमा से लगे अफगानिस्तान के पक्तिका जिले में स्थित ‘आतंकी शिविर’ में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के लड़ाके मारे गए हैं। वहीं, काबुल ने दावा किया कि जो 46 लोग मारे गए, उनमें सभी पीड़ित ‘निर्दोष महिलाएं व बच्चे’ थे।
इतना ही नहीं, अफगान तालिबान टीटीपी की मौजूदगी को भी नकारता है, जिसके 6,500 लड़ाकों ने उसे सत्ता हथियाने और अशरफ गनी की सरकार को गिराने में मदद की थी और अगस्त 2021 में अमेरिकी/नाटो सेना को बाहर कर दिया था। सबसे बड़ी बात, काबुल का कहना है कि टीटीपी पाकिस्तान का ‘आंतरिक मुद्दा’ है और इससे उसे खुद निपटना चाहिए। अफगान तालिबान के लिए, टीटीपी और करीब 30 हजार परिवारों को शरण और संरक्षण देना, भरोसे का मामला भी है। वे समान विचारों वाले वैसे ही ‘मेहमान’ हैं, जैसे कभी ओसामा बिन लादेन हुआ करता था। वास्तव में, दोनों ही अपने-अपने मुल्कों में इस्लामिक राज स्थापित करना चाहते हैं, जहां पश्तून और बलूच जनजातीय आबादी सामान्य रूप से बसी है। टीटीपी के लड़ाके पाकिस्तानी नागरिक हैं और वहां पनप रहे आतंकवाद में उनका योगदान सबसे ज्यादा है।
निस्संदेह, वे पाकिस्तान के लिए बहुत बड़ी चुनौती हैं, जो पहले से ही उत्तर में चीन सीमा से लेकर दक्षिण में बलूचिस्तान तक आतंकवाद से जूझ रहा है। पाकिस्तान के लिए यह समस्या और बदतर हो गई है, क्योंकि आतंकवाद का असर आदिवासी बेल्ट तक ही सीमित नहीं रहा है। जनता सेना, तालिबान व ‘राष्ट्रवादियों’ के बीच फंसी हुई है, जो नौकरियों, सुरक्षा और संसाधनों के लिए लड़ रहे हैं।
कूटनीतिक वार्ता के बीच पाकिस्तान ने हवाई हमला कर बड़ा जोखिम उठाया है, जिसकी वाजिब वजह भी स्पष्ट नहीं है। यह शक्तिशाली सेना के इशारे पर हो सकता है, जिसने बीते माह अपने सोलह सैनिकों को गंवा दिया था। टीटीपी के हमलों से चीन भी परेशान है, जिसने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) पर काम कर रहे अपने नागरिकों को खो दिया है। वह पाकिस्तान पर दबाव भी बना रहा है कि अगर वह चीनी नागरिकों की सुरक्षा में समर्थ नहीं है, तो चीन को अपने सैनिकों की तैनाती वहां करनी होगी। बीते साल मार्च से दिसंबर के बीच पाकिस्तान में 1,566 आतंकी हमले हुए, जिनमें 924 नागरिक मारे गए। इन बढ़ते हमलों के पीछे काबुल में अफगान तालिबान की वापसी को बताया जा रहा है। समाचार पत्र डॉन ने 26 दिसंबर, 2024 को चेताया था, ‘एकतरफा हमले चिंताजनक हैं, क्योंकि इससे दुश्मनी का चक्र शुरू हो सकता है।’
पाकिस्तानी सुरक्षा विश्लेषक मोहम्मद आमिर राणा का मानना है कि जिस मित्रता के उद्देश्य से पाकिस्तान ने तालिबान को सत्ता पर काबिज होने में मदद की थी, वह अब पूरा होता नहीं दिख रहा है। चिंता की बात यह है कि पाकिस्तान का तालिबान पर असर कम हो रहा है। राणा का कहना है, ‘अफगान तालिबान के संबंध अपने मध्य एशियाई पड़ोसियों के साथ-साथ रूस और चीन के साथ तुलनात्मक रूप से स्थिर हैं, जिसने तालिबान नेतृत्व को पाकिस्तान के मुकाबले खुद को मजबूत करने के लिए प्रोत्साहित किया है।’ इसका असर भारत-पाकिस्तान संबंधों पर भी पड़ता है। राणा के अनुसार, ‘तालिबान भारत के साथ कई उद्देश्यों को लेकर संबंधों को नया आकार देने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसका मुख्य उद्देश्य पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों में एक संतुलन लाना है। यह पाकिस्तान के लिए बहुत दुखदायी है।’ देखने वाली बात होगी कि डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका इस चुनौती से कैसे निपटेगा, जहां बाइडन प्रशासन अपनी मौजूदगी और पहल को खो चुका है।