नई दिल्ली. हिंदू धर्म में संक्रांति का विशेष महत्व बताया गया है. सूर्य (Surya) का किसी दूसरी राशि में प्रवेश संक्रांति कहलाता है और जिस राशि में सू्र्य प्रवेश करता है उसे उसी नाम से जाना जाता है. 14 मार्च को सूर्य मीन राशि में प्रवेश करने जा रहे हैं और खरमास शुरू हो रहा है. 14 मार्च की मध्यरात्रि में सूर्य मीन राशि में प्रवेश करेंगे. ऐसे में 15 मार्च यानी कल मीन संक्रांति होगी. ज्योतिष शास्त्र की मानें तो सूर्य 12 राशियों में प्रवेश करते हैं और ये क्रम मेष राशि से शुरू होकर मीन राशि पर समाप्त होता है. सूर्य की मीन संक्रांति का पुण्यकाल कल सुबह सूर्योदय से शुरू होगा और सुबह 8 बजकर 16 मिनट तक रहेगा. संक्रांति के दौरान पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है. इस दिन दान करने का भी विशेष महत्व बताया गया है. आइए आपको बताते हैं कि मीन संक्रांति के दिन भागवान सूर्य की उपासना किस तरह करनी चाहिए.

कब है मीन संक्रांति
कल मीन संक्रांति है. 14 मार्च मध्यरात्रि से सूर्य रात 12:16 मिनट में कुंभ राशि से निकलेंगे और मीन राशि में प्रवेश करेंगे. मीन राशि में सूर्य 14 अप्रैल की सुबह 8:43 मिनट तक रहेंगे. मीन संक्रांति का महापुण्य काल 15 मार्च सुबह 6:31 मिनट से सुबह 8:31 मिनट तक रहेगा.

इस तरह करें सूर्य देव की उपासना
मीन संक्रांति के दिन गंगा जैसी पवित्र नदी में स्नान करने का खास महत्व बताया गया है.
अगर किसी वजह से आप नदियों में स्नान के लिए नहीं जा सकते, तो घर पर ही नहाने के पानी में थोड़ा गंगाजल डालकर स्नान कर लें.
इस दिन भगवान सूर्य की पूजा जरूर करें. इस दिन उगते सूर्य को तांबा के लोटे में जल भरकर अर्घ्य दें.
सूर्य देव को अर्घ्य देने से स्वास्थ्य लाभ होता है. साथ ही नेगेटिव एनर्जी से मुक्ति मिलती है.
मीन संक्रांति के दिन भगवान सूर्य के मंत्रों का जाप करें साथ ही आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ करें.
संक्रांति के दौरान दान का विशेष महत्व बताया गया है. इस दिन जरूरतमंदों को वस्त्र, तिल और अनाज का दान करें.
इस दिन गाय को चारा खिलाना शुभ माना जाता है.

  • आदित्य हृदय स्त्रोत:

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌। रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्‌। उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा॥

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्‌। येन सर्वानरीन्‌ वत्स समरे विजयिष्यसे॥

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्‌। जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्‌॥

सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌। चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्‌॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्‌। पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्‌॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन:। एष देवासुरगणांल्लोकान्‌ पाति गभस्तिभि:॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति:। महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः॥

पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु:। वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर:॥

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्‌। सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर:॥

हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌। तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌॥

हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि:। अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन:॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग:। घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः॥

आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:। कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव:॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन:। तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्‌ नमोऽस्तु ते॥

नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम:। ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम:॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम:। नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम:॥

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम:। नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे। भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम:॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने। कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम:॥

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे। नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु:। पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि:॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित:। एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌॥

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च। यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु:॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च। कीर्तयन्‌ पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्‌। एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥

अस्मिन्‌ क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्‌॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा। धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान्‌॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्‌। त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्‌॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्‌। सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण:।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥