नई दिल्ली : गंगा भारत की सबसे लंबी नदी है. उत्तराखंड के गोमुख से निकली गंगा उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, और पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश बंगाल की खाड़ी तक 2,525 किलोमीटर तक का सफर तय करती है. हिंदू धर्म में गंगा को मां का दर्जा प्राप्त है. महाभारत से लेकर तमाम पौराणिक ग्रंथों में गंगा का जिक्र मिलता है. ऐसी मान्यता है कि गंगा स्नान से मोक्ष की प्राप्ति होती है. पूजा-पाठ से लेकर हवन अनुष्ठान जैसे तमाम धार्मिक कार्यों में गंगाजल का इस्तेमाल होता है. गंगाजल सालों-साल रखा रहता है पर न तो उसमें बदबू आती है ना कभी कीड़ा पड़ता है.

 

गंगाजल इतना चमत्कारिक क्यों है? इसका पता लगाने की शुरुआत पहली दफा 134 साल पहले हुई. 1890 के आसपास भारत के तमाम हिस्सों में अकाल के कारण भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई. लोग भूख से तो मर ही रहे थे, इस बीच प्रयागराज (तब इलाहाबाद) में गंगा किनारे लगे माघ मेले में हैजा भी फैल गया. धड़ाधड़ मौतें होने लगीं. अधिकतर लोग लाशों को जलाने या दफनाने की जगह गंगा में प्रवाहित करने. उस वक्त ब्रिटेन के चर्चित वैज्ञानिक और बैक्टीरियोलॉजिस्ट अर्नेस्ट हैन्किन गंगाजल पर रिसर्च कर रहे थे. वो यह देखकर दंग रह गए कि गंगा में हैजे से मरने वाले लोगों की लाश बहाने के बावजूद इस नदी का जल इस्तेमाल करने वाले दूसरे लोगों को कोई नुकसान नहीं हो रहा है. जबकि ब्रिटेन से लेकर यूरोप के दूसरे देशों में उल्टा था. वहीं दूषित नदीं का जल इस्तेमाल करने से लोग बीमार पड़ जाते.

कैंब्रिज से पढ़े अर्नेस्ट हैन्किन का माथा ठनका. उन्होंने गंगाजल के नमूने इकट्ठा किए और उनका विश्लेषण किया. उन्होंने पाया कि गंगाजल में बहुत कम बैक्टीरियल प्रदूषण था, जबकि इस नदी में आदमी से लेकर मवेशी तक नहाते, कचरा कचरा फेंकते और किनारों पर शव जलाते थे.

साल 1895 में हैन्किन ने एक पेपर में लिखा, ‘भारत की गंगा और यमुना नदी ब्रिटेन या यूरोप की ज्यादातर नदियों की तुलना में साफ हैं. भले ही इनके साथ कैसा भी व्यवहार किया जाता हो…

मार्च 1895 के इंडियन मेडिकल गजट में, हैन्किन ने ‘Observations on Cholera in India’ शीर्षक से एक लेख लिखा. जिसमें उन्होंने बताया कि उन्होंने बताया कि गंगाजल में एक ऐसा पदार्थ पाया जो हैजा के बैक्टीरिया को खत्म कर सकता है. हैन्किन ने निष्कर्ष निकाला कि नदी में फेंकी गई गंदगी और कचरा ज्यादातर कछुए और गिद्ध या दूसरे जानवर खा जाते थे, लेकिन जो जैविक सड़न थी, उसे यही अज्ञात ‘एंटी-बैक्टीरियल’ पदार्थ जल्दी से साफ कर देता था.

हैन्किन के बाद एक फ्रेंच वैज्ञानिक ने गंगाजल पर और रिसर्च किया. उन्होंने भी पाया कि गंगाजल में ऐसे वायरस पाए जाते हैं जो हैजा जैसी बीमारी के बैक्टीरिया को नष्ट कर देते हैं. यही वायरस गंगाजल की शुद्धता के लिए जिम्मेदार थे. इन वायरस को निंजा वायरस कहा गया. साइंस फैक्ट्स के मुताबिक गंगाजल में निंजा वायरस के अलावा और भी कई तरह के वायरस पाए जाते हैं जो बीमारी पैदा करने बैक्टीरिया से लड़ते हैं और यही इन्हीं वायरस के चलते गंगाजल में कभी बदबू इस समस्या नहीं होती है .

गंगाजल में करीब 1000 तरह के ‘बैक्टीरियोफेज’ पाए जाते हैं, जो बैक्टीरिया को नष्ट करने वाले वायरस हैं. Science Fact की एक रिपोर्ट के मुताबिक दूसरी नदियों में भी बैक्टीरियोफेज पाए जाते हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है. जैसे यमुना या नर्मदा नदी में 200 से कम प्रकार के ही बैक्टीरियोफेज पाए जाते हैं. यही कारण है कि दूसरी नदियों के जल के मुकाबले गंगाजल आसानी से खराब नहीं होता है. गंगाजल में सल्फर की मात्रा अधिक होती है, जो इसे लंबे समय तक खराब नहीं होने देती है. गंगाजल की एक और खासियत ये है इसकी ये वायुमंडल से ऑक्सीजन सोखने की क्षमता काफी ज्यादा है. दूसरी नदियों की तुलना में 20 गुना गंदगी अवशोषित कर सकती है.