नई दिल्ली. कार्तिक आर्यन हिंदी सिनेमा में उन सितारों की नुमाइंदगी करते हैं, जिनका यहां कोई ‘गॉडफादर’ नहीं है। और, उनकी अगली फिल्म की कहानी ही यही है कि एक पिता अपने बेटे को रईसी वाली परवरिश देने के लिए उसके पैदा होते ही उसे अपने मालिक के बेटे से बदल देता है। इस एक लाइन को पढ़कर आपको जैसा लगा, वैसा ही अगर कार्तिक आर्यन को लगा होता तो वह ये फिल्म कतई नहीं करते। फिल्म ‘शहजादा’ बड़ी दिक्कतों को पार करके सिनेमाघरों तक पहुंची है। फिल्म के निर्माता अल्लू अर्जुन के पिता अल्लू अरविंद भी हैं और जिस तेलुगू फिल्म ‘अला वैकुंठपुरमुलु’ पर ये फिल्म बनी है, वह भी अल्लू अरविंद ने ही बनाई थी। तेलुगू में फिल्म सुपरहिट रही थी, लेकिन किसी दक्षिण भारतीय फिल्म को हिंदी में बनाते समय उत्तर भारत की जिन संवेदनाओं को ध्यान रखना चाहिए, उसमें इसके निर्देशक रोहित धवन और संवाद लेखक हुसैन दलाल दोनों पूरी तरह चूके हैं।

फिल्म ‘शहजादा’ ये भी बताती है कि हिंदी फिल्में बनाने वाले समाज से कितने कटे हुए हैं। जमाना इक्कीसवीं सदी के 23वें साल में है और फिल्म का निर्देशक अपने एक किरदार का नाम अब भी ‘वाल्मीकि’ रखने की हिम्मत रखता है। हिंदी सिनेमा के ये धुरंधर न जमाने को समझने की कोशिश करते हैं और न ही इसमें हो रहे बदलाव को। उनको बस एक हिट फिल्म को अपने हिसाब से बदलना आता है। अल्लू अर्जुन की सुपरहिट फिल्म ‘अला वैकुंठपुरमुलु’ की इस आधिकारिक हिंदी रीमेक में रोहित धवन ने जो कुछ भी अपने पास से जोड़ा है, उसने मूल फिल्म का मजा ही खराब कर दिया है। फिल्म ‘अला वैकुंठपुरमुलु’ का यूट्यूब पर जो हिंदी संस्करण उपलब्ध है, वह फिल्म ‘शहजादा’ से कहीं बेहतर है।

अल्लू अर्जुन की फिल्म ‘अला वैकुंठपुरमुलु’ जिस किसी ने भी देखी है वे सब फिल्म की कहानी से अच्छी तरह से वाकिफ होगें। तेलुगू में अब भी मेलोड्रामा चलता है लेकिन हिंदी सिनेमा में बच्चों की अदला बदली पर फिल्में 70 और 80 के दशक में बना करती थीं। ‘शहजादा’ कहानी के स्तर पर ही फेल हो गई फिल्म है। कहने को कहानी ये है कि जिंदल इंटरप्राइजेज के मालिक रणदीप जिंदल और उनकी कंपनी में काम करने वाले क्लर्क की पत्नी को एक ही दिन हॉस्पिटल में बच्चे पैदा होते हैं। अपने बच्चे की मालिक के घर परवरिश होने का ख्वाब देख रहा बाबू दोनों बच्चों को अदल बदल देता है। और, जब राज से पर्दा उठता है तब क्या होता है, यही फिल्म ‘शहजादा’ की बित्ता भर कहानी है।

फिल्म ‘शहजादा’ का प्रचार फैमिली एंटरटेनर के तौर पर किया गया है। ओटीटी काल में परिवार वाले साथ बैठकर किस तरह की फिल्में देखते रहे हैं, इस पर रिसर्च शायद रोहित धवन ने की नहीं। ऐसा लगता है कि उन्होंने पूरी फिल्म अपने भाई वरुण धवन को ध्यान मे रखकर रिराइट की है और फिर लगा कि वरुण से बड़े स्टार तो अब कार्तिक आर्यन हैं तो फिल्म उनके हिसाब से यहां वहां बदल दी। लेकिन, दिक्कत यहां कार्तिक आर्यन की है। वह परदे पर वरुण धवन ही बने दिखते हैं। वैसा ही चलने का अंदाज, वैसा ही मुस्कुराने का अंदाज और फिल्म के कोरियोग्राफर ने नाच भी उनसे वैसा ही करा दिया है। फिल्म शुरू से लेकर आखिर तक कुछ खास ऐसा दिखा नहीं पाती कि जिन लोगों ने फिल्म ‘अला वैकुंठपुरमलु’ देख ली हो, उनको कुछ बेहतर दिख जाए। कहानी वहां भी खास नहीं थी, कहानी यहां उससे भी कमजोर हो गई है।

कलाकारी के मामले में भले कार्तिक आर्यन की जोड़ी कृति सेनन के साथ जमती हो लेकिन एक वकील बनी कृति अपने पेशे की गरिमा के हिसाब से फिल्म में कुछ भी करती नजर नहीं आती। दोनों की केमिस्ट्री फिल्म रिलीज होने से पहले ही लोग सोशल मीडिया पर बीते महीने भर से देख सुन रहे हैं। अब ये देखने तो वे फिल्म देखने आने से रहे। रोहित धवन ने ऐसा कुछ नहीं दिखाया जो फिल्म ‘शहजादा’ देखने के लिए दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाए। इंटरवल तक तो फिल्म अच्छा खासा पकाती है, इंटरवल के बाद फिल्म की रफ्तार तो बनती है लेकिन उसमें भी राजपाल यादव को छोड़ कोई कमाल सीन नजर नहीं आता। अदाकारी का पूरा विभाग परेश रावल ने अकेले संभाला है लेकिन उनकी अदाकारी में भी अब दोहराव नजर आने लगा है। उनको जब भी कॉमेडी करनी होती है, वह अपने अभिनय जीवन का एक सेट टैम्पलेट खोल लेते हैं। हां, मनीषा कोइराला को अरसे बाद एक कमर्शियल फिल्म में देखकर जरूर खुशी होती है।

फिल्म देखते समय सबसे चौंकाने वाला काम इसके सिनेमैटोग्राफर सुदीप चटर्जी और संजय एफ गुप्ता का नजर आता है। मूल फिल्म देख चुके लोगों को लगेगा कि फिल्म के कुछ दृश्यों की शूटिंग हू ब हू उसी तरीके से कर दी गई है। लेकिन, इन दृश्यों में अल्लू अर्जुन के स्वैग की बराबरी करने में कार्तिक आर्यन चूक गए दिखते हैं। उनका फैन बेस भी अभी इतना तगड़ा नहीं है कि उनके स्वैग को वह भांप सके। गणेश आचार्य और बॉस्को सीजर की कोरियोग्राफी में भी कुछ नया नहीं है। सब वन टू थ्री फोर है। हुक स्टेप बस उतने ही दिनों तक याद रहने वाले हैं जितने दिनों तक इन गानों पर रील्स बनती रहेंगी। और, हां गानों से याद आया कि इस फिल्म में म्यूजिक प्रीतम का है। मयूर पुरी के लिए टाइटल सॉन्ग के अलावा फिल्म का कोई दूसरा गाना फिल्म देखकर निकलने के बाद याद नहीं रह पाता। टी सीरीज जैसी म्यूजिककंपनी की फिल्म का म्यूजिक इतना भी कमजोर होना नहीं चाहिए।