लखनऊ।  यहां जाति और क्षेत्रवाद की भावना प्रबल है। अलग-अलग जाति व समाज में दबदबा रखने वाले क्षेत्रीय दलों की पौ बारह है। सूबे में यह लोकसभा चुनाव पिछले विधानसभा चुनाव की तरह भाजपा व मुख्य विपक्षी दल सपा के इर्दगिर्द घूमता नजर आने लगा है।

करीब 24 करोड़ की आबादी वाले राज्य में लोकसभा की 80 सीटें हैं। यहां जाति और क्षेत्रवाद की भावना प्रबल है। अलग-अलग जाति व समाज में दबदबा रखने वाले क्षेत्रीय दलों की पौ बारह है। सूबे में यह लोकसभा चुनाव पिछले विधानसभा चुनाव की तरह भाजपा व मुख्य विपक्षी दल सपा के इर्दगिर्द घूमता नजर आने लगा है। दोनों ने ही अपने-अपने नेतृत्व में सहयोगी तलाशे हैं। भाजपा नीत राजग में अनुप्रिया पटेल का अपना दल एस और मंत्री संजय निषाद की निषाद पार्टी पहले की तरह शामिल है। अब रालोद भी शामिल हो गया है। सपा के खेमे से ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा को भी तोड़ लिया है।

विपक्ष की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर बना कांग्रेस नीत इंडिया यहां उम्मीद के हिसाब से आकार नहीं ले पाया है। प्रदेश में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व सपा मुखिया अखिलेश यादव के हाथ है, जिसमें कांग्रेस जूनियर सहयोगी की भूमिका में है। इंडिया में शामिल आम आदमी पार्टी भी सपा-कांग्रेस गठबंधन में शामिल नहीं हो पाई है। बसपा को जोड़ने का प्रयास फिलहाल सफल होता नजर नहीं आ रहा है। अपना दल (कमेरावादी) सपा के साथ है। आजाद समाज पार्टी भी साथ आ सकती है। बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार अकेले चुनाव लड़ने की बात दोहरा रही हैं। 2019 से 2024 के बीच पांच सालों की बात करें तो गठबंधन की सियासत में प्रदेश में बड़ा उतार-चढ़ाव आया है। बदले हालात में कौन गठबंधन प्रदेश के अलग-अलग इलाकों के जातीय जंजाल को भेद कर अपने प्रदर्शन में कितना सुधार कर पाता है, इसपर सबकी नजरें हैं। 2019 के चुनाव की बात करें तो भाजपा गठबंधन को 80 में 64, सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को 15 और कांग्रेस को एक सीट से संतोष करना पड़ा था।

2019 के पिछले लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा और रालोद ने गठबंधन किया था। इसे महागठबंधन करार दिया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों ने भविष्यवाणी शुरू कर दी थी कि मोदी के विजय रथ को यह गठजोड़ यूपी में रोक देगा। लेकिन, ऐसा हो नहीं सका।

भाजपा गठबंधन ने 64 सीटें जीतकर परचम लहरा दिया था। यह महागठबंधन 15 सीटों पर सिमट गया था। बसपा को 10 और सपा को 5 सीटें मिली थीं। रालोद का खाता नहीं खुल पाया था।

कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में एकला चलो के सिद्धांत पर चुनाव लड़ा था। नतीजा ये हुआ कि राहुल अपनी पैतृक व परंपरागत सीट अमेठी भी भाजपा की स्मृति जूबिन इरानी से हार गए। कांग्रेस को सिर्फ रायबरेली सीट से संतोष करना पड़ा था। इस बार बसपा-रालोद गठबंधन से बाहर हैं। सपा-कांग्रेस ने हाथ मिलाया है।

राजनीतिक विश्लेषक प्रो. गोपाल प्रसाद कहते हैं कि यूपी के लिहाज से देखें तो भाजपा (वोट शेयर-49.98 प्रतिशत), सपा (18.11 प्रतिशत) और बसपा (19.43 प्रतिशत) जैसी पार्टियां तमाम लोकसभा सीटों पर लाख में वोट हासिल करती हैं। लेकिन कई सीटें 5-10-20-25 हजार वोटों से हार जाती हैं। सिर्फ अपने जातियों की राजनीति करने वाले छोटे दल चुनाव जीतने वाला आधार तो पैदा नहीं कर पाते। पर, ये पार्टियां 5 से 25 हजार और कई लोकसभा सीटों पर आबादी के हिसाब से 40-50 हजार वोट का आधार बनाने में सक्षम होती हैं।

यूपी में कांग्रेस (2019 में वोट शेयर 6.36 प्रतिशत ) भी छोटे दलों वाली हैसियत में ही है। छोटे दल जिस बड़े दल के साथ जुड़ जाते हैं, उनका समर्थक वोटर उनके साथ चला जाता है। बड़े दलों की कुछ वोटों से हारने की स्थिति वाली सीटें पक्की हो जाती हैं। बदले में छोटे दल अपने बड़े आधार वाले क्षेत्रों में बड़ी पार्टियों से कुछ सीटें मांगकर अपना आधार बढ़ाने का प्रयास करते हैं। हालांकि छोटे दलों की मदद से बड़े दल ज्यादा सीटें जीतते हैं। इसीलिए भाजपा व सपा ने अपने से कम वोट शेयर वाले दलों से हाथ मिलाया है।