लखनऊ । लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान अगले महीने यानी मार्च में होने की प्रबल संभावना है, लेकिन उससे पहले सभी राजनीतिक दल और उनके प्रमुख राजनीतिक ‘गोटियां’ सेट करने में लगे हैं। इंडिया गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि इस बार मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठने से कैसे रोका जाए। यही वजह है कि इंडिया गठबंधन में शामिल तमाम विपक्षी पार्टियों ने सीट शेयरिंग का फॉर्मूला अपनाया है। जिससे एनडीए को मात दी जा सके। हालांकि, जो अभी तक के समीकरण और मीडिया रिपोर्ट सामने आ रही हैं, उससे यही लगता है कि नरेंद्र मोदी तीसरी बार भी दिल्ली के सिंहासन पर बैठेंगे।
ऐसे में अगर हम उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की बात करें तो 2019 की अपेक्षा इस बार (2024) सपा चीफ अखिलेश यादव के लिए सियासी और राजनीतिक समीकरण काफी बदले हुए हैं। क्योंकि लोकसभा चुनाव 2019 से पहले चाचा (शिवपाल सिंह यादव) और भतीजे (अखिलेश यादव) के बीच टकराव के बाद सपा से टूट कर बनी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) भले ही कोई सीट हासिल नहीं कर पाई थी, लेकिन शिवपाल ने अखिलेश के खेमे में गहरी सेंध लगाई थी। उस वक्त प्रसपा को अपने किसी प्रत्याशी के न जीत पाने का अफसोस नहीं था। प्रसपा नेता इसी में खुश और संतुष्ट थे कि जिसने उनके नेता का अपमान किया, उसे उसके किए का फल मिल गया।
17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में समाजवादी पार्टी के परंपरागत मतदाताओं के बीच यही एक बात गहराई से तैर रही थी कि शिवपाल सिंह यादव तो हर कदम पर पार्टी और मुलायम के लिए समर्पित रहे, लेकिन नेताजी (मुलायम) और अखिलेश ने शिवपाल के साथ ठीक नहीं किया। लोग यह मान रहे थे कि अपमानजनक परिस्थितियों के कारण ही शिवपाल को अलग पार्टी बनाने का कठिन फैसला लेना पड़ा था। लोगों की इस सहानुभूति ने जहां शिवपाल को हौसला दिया, वहीं सपा के गढ़ में भी सेंध लगा दी।
शिवपाल ने भी हर वह दांव आजमाया था, जिससे सपा के लिए मुश्किलें कम न होने पाएं। अपनी पुरानी पैठ की बदौलत जहां उन्होंने सपा के जमीनी कार्यकर्ताओं में दो-फाड़ की नौबत ला दी थी, वहीं परिवार को भी वह अखिलेश के खिलाफ ले आए थे। फीरोजाबाद में अपने समर्थन के लिए वह बदायूं से निवर्तमान सांसद धर्मेंद्र यादव के पिता और मुलायम के बड़े भाई अभयराम यादव को ले आए थे। फीरोजाबाद के मतदाता इससे दुविधा में आ गए, जिसके नतीजे में सपा हार गई।
प्रसपा ने लोकसभा चुनाव में कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के 12 राज्यों में करीब 120 उम्मीदवार उतारे थे। इसमें 50 प्रत्याशी यहां प्रदेश में थे, लेकिन मुलायम सिंह के निधन के बाद चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश एक बार फिर से एक नाव पर सवार हैं।
2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा और आरएलडी गठबंधन में शामिल थे। इसके बावजूद भी समाजवादी पार्टी को सिर्फ 5 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। सपा को इतनी कम सीटें मिलने के पीछे सबसे बड़ा कारण शिवपाल फैक्टर ही माना गया था। जबकि बसपा को 10 सीटें मिली थीं। वहीं आरएलडी के खाते में एक भी सीट नहीं गई थी, जबकि उसने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था। हालांकि, इस गठबंधन में कांग्रेस शामिल नहीं थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया था, तब आरएलडी ने पांच सीटों पर जीत हासिल की थी।
2019 लोकसभा चुनाव की अपेक्षा आगामी लोकसभा चुनाव 2024 की बात करें तो इस बार समाजवादी पार्टी के लिए राजनीतिक समीकरण काफी बदले हुए हैं। इस बार अखिलेश के साथ उनके चाचा शिवपाल भी हैं, और सपा का कांग्रेस के सीट शेयरिंग का फॉर्मूला भी फाइनल हो चुका है। इस सीट शेयरिंग फॉर्मूले में कांग्रेस को 17 और सपा को 63 मिली हैं। अगर कोई नया दल सपा के साथ शामिल होता है तो अखिलेश इन 63 सीटों पर खुद विचार कर सकते हैं कि उस दल को कोई सीट देनी है या नहीं।
हालांकि, इस बार सपा का बसपा और आरएलडी के साथ कोई गठबंधन नहीं है। इंडिया अलांयस की तरफ से कोशिश की गई थी कि मायावती इस अलांयस में शामिल हो जाएं, लेकिन बसपा प्रमुख ने लोकसभा चुनाव अकेल अपने दम पर लड़ने का ऐलान किया और किसी भी गठबंधन से साफ इनकार कर दिया। वहीं आरएलडी जो कुछ दिन पहले तक इंडिया गठबंधन में शामिल थी, वो अब एनडीए में लगभग शामिल हो चुकी है। बीजेपी के साथ आरएलडी की सीट शेय़रिंग का फॉर्मूला तय होना है। जिसको लेकर कभी भी ऐलान हो सकता है।
वहीं समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे पर सहमति बनने के बाद अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के आगरा में राहुल गांधी की न्याय यात्रा के अंतिम दिन शामिल हुए। सात साल बाद एक बार फिर अखिलेश यादव और राहुल गांधी एक साथ नज़र आए। 2017 विधानसभा चुनावों से पहले साथ आए अखिलेश यादव और राहुल गांधी कुछ ख़ास नहीं कर सके थे और राज्य में बीजेपी की सरकार बन गई थी।
इस बार उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के वोटों को एकजुट करने की कोशिश में जुटे हैं। उन्होंने पीडीए यानी पिछड़ा दलित-अल्पसंख्यक का नारा दिया है। हालांकि, यह वक्त ही बताएगा कि कांग्रेस और सपा का सीट शेयरिंग का यह फॉर्मूला और चाचा शिवपाल का साथ कहां तक सफल होता है।