बॉलीवुड अभिनेता विक्की कौशल ने हिंदी फिल्मों में अपने करियर की शुरुआत मनोज बाजपेयी की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर से बतौर असिस्टेंड डायरेक्टर के रूप में की थी। उसके बाद उन्होंने जुबान, रमन राघव 2.0, सरदार उधम जैसी फिल्मों में यादगार किरदार निभाए हैं। अब वह शशांक खेतान द्वारा निर्देशित फिल्म गोविंदा नाम मेरा में कामेडी करते हुए नजर आएंगे। इसके बाद उनकी बहुप्रतिक्षतित फिल्म सैम बहादुर लाइन में है। अब उन्होंने इस बारे में हमारी संवादादता स्मिता श्रीवास्तव से बातचीत की है। आइए जानते हैं इस खास बातचीत के कुछ अंश…।
टाइम तो लगा, लेकिन देर आए दुरुस्त आए। उल्टा अच्छा ही है टाइम लगा। कामेडी के लिए मुझे उस कांफिडेंस की जरूरत थी। इतने साल अलग-अलग निर्देशकों के साथ काम करके काफी कुछ सीखने को भी मिला। इससे मुझे गोविंदा नाम मेरा में बहुत मदद मिली। अगर यह फिल्म मुझे करियर की शुरुआत में मिल जाती तो इतना आत्मविश्वास नहीं होता कि उसे विश्वसनीय बना पाता। जो भी होता है, सही समय पर होता है। मैंने इतने समय से इंटेंस (गंभीर) फिल्में की थीं तो मुझे भूख थी कि हल्की-फुल्की मस्ती वाली फिल्में करूं। जब आपको भूख हो तब वैसी फिल्म आ जाए तो अच्छा कॉबीनेशन हो जाता है। गोविंदा नाम मेरा मेरी जिंदगी में उस समय आई जब मुझे इस फिल्म की भूख थी।
अभिनेता ने हंसते हुए इस सवाल का जवाब देते हुए कहा, कितनी अच्छी-अच्छी इंटेंस और परफार्मेंस वाली भूमिका कीं, फिर भी कहते हैं कि काम अच्छा किया, लेकिन नाच-गाना कब करेगा? पार्टियों में तेरे गाने पर नाचेंगे कब? मैंने कहा कि वो भी होगा। कम-से-कम रिश्तेदार इस फिल्म से खुश हो गए। इसके बाद दो-तीन अलग मिजाज वाली फिल्में आएंगी। गोविंदा नाम मेरा बंबईया स्वभाव की भी हैं, लेकिन आपको मेरी फिल्मों में कामेडी, नाच-गाना सब देखने को मिलेगा।
गोविंदा बनना मजेदार था क्योंकि मुंबई में ही परवरिश और स्कूलिंग हुई है। मुंबई शहर की अपनी तकलीफें होती हैं। मेरा पात्र फिल्म इंडस्ट्री में बैकग्राउंड डांसर है। तो हमने वो भी देखा हुआ है कि उनकी लाइफ क्या होती है। कितनी कठिन होती है, फिर भी उन्हें कैमरे के सामने स्माइल देकर डांस करना होता है। आसान नहीं होता कि अपनी परेशानियों को दरकिनार कर आप पैसा कमाने के लिए रोज डांस कर रहे हों तो यह उन सबका मिश्रण है, लेकिन इस फिल्म में बहुत ज्यादा पागलपंती हो रही है। कामेडी भी चल रही है, कंफ्यूजन भी है, बीच में मर्डर भी हो जाता है। इंडिया का एक स्वभाव होता है कि कितनी भी तकलीफें आ जाएं, अगर हमारा जुगाड़ बटन ऑन हो जाए, तो हम कुछ रास्ता निकाल ही लेते हैं।
(हंसते हुए) इंजीनियरिंग खत्म करके एक्टर बन गया, इससे बड़ी पागलपंती क्या होगी। इस प्रोफेशन में नौ से पांच का काम नहीं होता है। आर्टिस्ट होना एक तरह की पागलपंती ही है। आप दिल से ज्यादा सोचते हो। आप कैलकुलेटिव नहीं होते। हर इमोशन को रोज जीते हो, भले ही निजी जिंदगी में आप कुछ भी कर रहे हो। अगर आपका मूड खराब है, लेकिन आपको कामेडी करनी है या कई बार आप बहुत खुश होते हैं, लेकिन आंसू निकालने हैं तो वो अपने आप में पागलपंती है।
मुझे लगता है कि बतौर कलाकार रोजाना आप कुछ न कुछ पागलपंती करते ही हो। डिजिटल प्लेटफार्म पर प्रदर्शित फिल्म लव पर स्क्वायर फीट में भी आपने कामेडी की थी। तब डिजिटल प्लेटफार्म का इतना बूम नहीं था… कोविड के पहले और बाद में ही कितना फर्क आ गया है। डिजिटल प्लेटफार्म पर आने वाली मेरी पहली फिल्म लव पर स्क्वायर फीट थी। तब लोग इस माध्यम के बारे में थोड़ा जागरूक ही हो रहे थे कि अपने मुताबिक घर बैठे भी फिल्म देख सकते हैं। अभी लोगों के जेब में सारे डिजिटल प्लेटफार्म के सब्सक्रिप्शन हैं। अच्छा है कि अभी थिएटर, डिजिटल और दोनों साथ-साथ चल रहे हैं।
बहुत मजा आया। जो मुझे रियल लाइफ में जानते हैं उन्हें पता है कि मुझे नाचना कितना पसंद है। नाचना मैंने कहीं से सीखा नहीं है, लेकिन मुझे नाच के साथ खुशी जाहिर करने वाला एक्सप्रेशन बहुत अच्छा लगता है। चाहे पार्टी हो या शादी, मैं पहले नाचता हुआ दिखूंगा। मैं अकेले नाच सकता हूं। तो जब फिल्म में यह एक्सप्लोर करने का मौका मिला, खास तौर पर अब तक मेरा यह पहलू नहीं दिखा है तो और भी मजा आता है कि कुछ मेरे अंदर भी चल रहा है। खास तौर पर जब गणेश आचार्य जैसे कोरियोग्राफर और शशांक खेतान जैसे निर्देशक आपको गाइड करने के लिए हों तो मैं खुद को बहुत सुरक्षित महसूस कर रहा था कि इस रूप में आ रहा हूं। शशांक और आप थिएटर में साथ थे।
मैं ईमानदारी से कहूं तो शुरुआत में थिएटर करने से बहुत डरता था। मैंने 2009 में इंजीनियरिंग पूरी करके जब एक्टिंग शुरू की तब लगता था कि दिग्गज कलाकार तो नाटक करते हैं। यह अलग स्पेस है। इससे मैं डरता था। जब मैंने गैंग्स आफ वासेपुर की तो उसमें मनोज बाजपेयी सर, पीयूष मिश्रा, रिचा चड्ढा, पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकार थे। इन सबका दिल्ली से थिएटर बैकग्राउंड था तो लगा कि थिएटर करना चाहिए। मेरे थिएटर से कुछ दोस्त बन गए तो उन्होंने मौका दिया। तीन-चार साल थिएटर करने लग गया। मुझे सबसे बड़ा फायदा थिएटर का मिला वो यह कि सिनेमा में आपको ट्रायल एंड एरर का मौका नहीं मिलता है। अगर आप कुछ करो वो खराब हो गया तो बस हो गई आपकी दुकान बंद।
थिएटर में खुद को एक्सप्लोर करने का मौका मिलता है। वहां बहुत रिहर्सल होता था। तीन महीने में एक नाटक होता था। वो जो खुद को जानने के मौके मिले कि मैं यह अच्छा करता हूं, यह खराब करता हूं, इससे आत्मविश्वास बढ़ता गया। थिएटर मेरे लिए रियाज बन गया था। शशांक और मैं थिएटर करते थे। उस समय शशांक एक्टिंग करते थे। अच्छा हुआ शशांक निर्देशक बन गए। हम साथ में काम कर रहे हैं।
अभी कोलकाता में उसका शेड्यूल पूरा किया है। इस फिल्म के प्रमोशन के लिए आया हूं, फिर ऊटी में शूटिंग का अगला शेड्यूल है जिसकी मार्च तक शूटिंग चलेगी। उस फिल्म पर पांच साल से निर्देशक मेघना गुलजार भी काफी मेहनत कर रही हैं। आर्मी से भी हमें बहुत सहायता मिल रही है। जब मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी थी तो यही लगा था कि इस पर अभी तक फिल्म बनी क्यों नहीं। सैम बहादुर के किस्से मैं अपने पापा से सुना ही करता था।
बदला तो यह कि लोग कहते हैं कि अब मेरे चेहरे पर चमक आई है। थोड़ा-सा निखार आ गया है। मेरे हिसाब से जब दिल से आपको खुशी होती है तो चेहरे पर सुकून होता है। कटरीना के साथ शादी के बाद मैं रोज उस फीलिंग के साथ जीता हूं, जो दिल को सुकून देती है। मैं खुद को लकी मानता हूं कि हम साथ आए।