नई दिल्ली. दिवाली करीब है. दिवाली यानी खूब सारी मिठाइयां, मिठाइयों का नाम लिया जा रहा तो लच्छेदार कुरकुरी रसभरी जलेबी से दूरी कैसे बरती जाए. भारत का कोई भी कोना हो, रस की यह डोर अपने किसी न किसी रंग में मिल ही जाती है. क्या आपको मालूम है अपने नाम, सूरत और सीरत से इतनी भारतीय लगने वाली यह मिठाई वास्तव में विदेशी है. इस दिवाली, आइए जानते हैं कहां बनी थी पहली जलेबी और कैसे यह हमारी स्वाद यात्रा का अभिन्न हिस्सा बन गई
इतिहास के मुताबिक़ इस रसभरी मिठाई का नाता पर्शिया यानी आधुनिक ईरान से जुड़ता है. इतिहासकारों की मानें तो जलेबी वास्तव में ईरानी मिठाई जलाबिया या जुलबिया की बहन है. दसवीं सदी की एक किताब किताब-अल-तबीख में ‘मुहम्मद अल बगदादी’ ने इस मिठाई का जिक्र किया है. उसी समय की एक और अरबी किताब इब्न सय्यार अल वर्राक़ में भी इसके बारे में बताया गया है. लगभग पांच सौ सालों बाद जैन लेखक जिनासुर की किताब प्रियंकरनरपकथा में ऐसी ही एक मिठाई की बात कही गई है. माना जाता है कि यह अरबी आक्रमणकारियों के साथ भारत आई और यहां के उत्सवों के रंग में ढल गई.
दसवीं सदी की जलाबिया और जुलाबिया से लेकर अब तक जलेबी ने लम्बा सफर तय किया है. इस लम्बी यात्रा ने इसके रंग रूप में भी खूब बदलाव किया है. मैदे की इस मिठाई को बनाना भी उतना आसान नहीं है. शायद यही वजह है कि देश के अलग-अलग भाग में यह अलग-अलग रूप में नजर आती है. कहीं पनीर जलेबी हिट है तो कहीं बड़े आकार के जलेबा की पूछ है. आम तौर पर मैदे की बनने वाली जलेबी को जब उड़द की दाल से बनाया जाता है तो जो मिठाई तैयार होती है उसे इमरती कहते हैं. यह इमरती तमिलनाडु में जांगरी हो जाती है. दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में घूम रहे हैं तो दरीबा में खास जलेबा नजर आएगा. जलेबा असल में जलेबी का ही बड़ा रूप है जिसकी डोर तनिक मोटी होती है. मध्यप्रदेश के जबलपुर में जलेबी के मैदे में खोया भी मिलाया जाता है. हलके भूरे रंग की इस जलेबी को खोया जलेबी कहते हैं.
लेबियों के कई प्रकार हैं. इस त्योहारी मौसम में रस में डूबने के लिए आप इनमें से कोई भी चुन सकते हैं. दिवाली के आनंद में मिठास की एक और परत घुल जाएगी.