सबको और सदा के लिए अनिवार्य भोजन का आदर्श लक्ष्य अभी भी दूर की कौड़ी है। इस निमित्त कारगर उपाय करने की बजाय केंद्र सरकार ने सात चरणों तक प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना चलाकर गरीब परिवारों को प्रतिमाह प्रति सदस्य 5 किलो अनाज मुफ्त बांटा। अब उस योजना की जगह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत 31 दिसंबर 2023 तक 81.35 करोड़ गरीबों को पहले की तरह मुफ्त राशन देने का फैसला किया है। इससे केंद्र सरकार पर लगभग 2 लाख करोड़ रुपए का अधिक खर्च आएगा।
लगातार बढ़ती ब्याज दर और आसन्न कोरोना महामारी से सुस्त पड़ी कमाई के मद्देनजर यह राहत भरा फैसला है। लेकिन योजना के विस्तार की टाइमिंग, अतिरिक्त बजट बोझ के कारण स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढांचा आदि के बजट में कटौती होने की चिंता के साथ-साथ सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक लाभ लेने की आशंका भी जताई जा रही है। वहीं यह भी आलोचना की जा रही है कि 20 से 25 रुपए प्रति किलो की लागत से पैदा होने वाले अनाज को मुफ्त में बांटने का फैसला कहीं किसानों के हाथ में कटोरा थमा देने वाला न साबित हो जाए?
प्रश्न है कि भोजन का अधिकार वैधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार है, या मानव अधिकार है? भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसे संविधान के अनुच्छेद 21 (सम्मान से जीवन का अधिकार) 39(ए) और 47 से जोड़ते हुए एक मौलिक अधिकार माना है। नीति निर्देशक तत्व में भी पोषण और जीवन स्तर बेहतर करने के निर्देश राज्यों को दिए गए हैं। कहा गया है कि राजकोष का खर्च बहुत भारी हो तब भी भूख मिटाना प्रमुख प्राथमिकता होनी चाहिए। इस दृष्टिकोण से मुफ्त अनाज देने की सीमा एक साल आगे बढ़ाने का निर्णय अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता है। भारत में फ्री अनाज देने की योजना दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे अधिक समय तक चलने वाली योजना हो गई है।
भोजन के अधिकार के प्रति भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि भोजन मुफ्त में दिया जाना चाहिए। आज हम जिस आजादी का अमृत काल मना रहे हैं वह आजादी बंगाल के भीषण अकाल की पृष्ठभूमि में मिली थी। 1942 -43 के दौरान पड़े अकाल में 30 लाख बच्चे, महिलाएं और पुरुष भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मर गए थे।
इसी तरह कोरोना महामारी के दौरान शहरों से गांव की ओर पलायन कर रही एक बड़ी आबादी दाने-दाने को मोहताज हो गई थी। संपूर्ण लॉकडाउन के कारण अधिकांश घरों के चूल्हे कई दिनों तक उदास रहे । भारत जीवन यापन के संकट को व्यापक खाद्य संकट में नहीं बदलना चाहता था इसलिए कोरोना के कारण प्रधानमंत्री मुफ्त अनाज योजना की शुरुआत अप्रैल 2020 में हुई थी। इससे गरीबों को बहुत सहारा मिला और वर्तमान की खाद्य मुद्रास्फीति के दौर में महंगे अनाज की खरीद से भी करोड़ों परिवारों को बचाया है। क्योंकि खाते में भेजी जाने वाली निर्धारित राशि भी लाभार्थी को मुद्रास्फीति से नहीं बचा पाती।
आम आदमी को भोजन के लिए राशन उपलब्ध कराने हेतु सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) 1939 में तब के मुंबई राज्य में शुरू हो गई थी। बाद के सालों में इसका दायरा बढ़ा और 1977 में जनता पार्टी के शासन के दौरान अखिल भारतीय स्तर तक इसका विस्तार फैला और इसमें उदारता भी आई।
लेकिन तथ्य यह भी है कि तमाम अनियमितताओं के कारण या आज तक यह पूर्णतया फलीभूत नहीं हो पाई है। फ्री का राशन उठाकर चोर बाजार में बेचे जाने की घटनाएं आम है। पीडीएस दुकानदारों द्वारा राशन कार्ड की धांधली बदस्तूर जारी है। ऐसे में आजादी के अमृत काल और 2024 के आम चुनाव से ठीक पहले फ्री अनाज देने के निर्णय की उपादेयता को लेकर तरह-तरह के तर्क दिये जा रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सियासी फितरत करने वालों ने भोजन को हमेशा राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। केरल में निराश्रित बूढ़ों के नाम पर फ्री चावल देना, आंध्र प्रदेश में भूखा ना सोने देने का संकल्प करना, कर्नाटक, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में एक रुपए किलो चावल देना, तमिलनाडु में 20 किलो चावल मुफ्त देना, बिहार और उड़ीसा में मात्रा कम व्यापकता ज्यादा का ऐलान करना, गुजरात में एपीएल का हिस्सा बीपीएल को, पंजाब की आटा दाल योजना, मध्यप्रदेश में पीडीएस से भी सस्ता तो बंगाल में ममता की मुफ्त ममता आदि के अनेकों उदाहरण है, जहां शासन करने वालों ने मुफ्त भोजन को राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया है। कोरोना के दौरान दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने मुफ्त भोजन के नाम पर राजनीतिक फायदा उठाने की बेइंतहा कोशिश में केंद्र सरकार से टकराव भी मोल लिया था।
दरअसल मुफ्त अनाज देना कोई समाधान नहीं है। सरकारों को राजनीतिक हित तलाशने की जगह मजबूत उपाय करने चाहिए। बुनियादी ढांचा और रोजगार के अवसर बढ़ेंगे तभी देश की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी। देश की बड़ी आबादी को मुफ्त में अनाज मिलेगा तो उनमें से अधिकांश ‘ठलुआ क्लब’ में शामिल हो जाएंगे। बिना काम किए खाना मिल जाए तो मेहनत क्यों करेंगे?
आंकड़ों पर गौर करें तो देश में 62% लोगों की जीविका कृषि पर निर्भर है। उद्योग और सेवा क्षेत्र की लगभग 50% मांग गांव से आती है। गांव और कृषि का ढांचा मजबूत करने से गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी और महंगाई की समस्याएं कम होंगी। पलायन रुक जाएगा। पर विडंबना यह है कि सरकारें मुफ्त की रेवड़ियां बांट कर अपना राजनीतिक लाभ लेती रही हैं। एक बात समझ से परे है कि सरकार दावा करती है कि देश में सिर्फ 20 करोड़ आबादी ही गरीबी रेखा के नीचे है तो फिर 81.35 करोड़ आबादी को मुफ्त भोजन देने का आखिर मकसद क्या है?
इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार की नीयत ठीक नहीं है। सरकार रेवड़ी बांट कर वोट बैंक मजबूत करना चाहती है। मुफ्त अनाज योजना की अवधि पहले ही 7 बार बढ़ाई गई। अब यह अवधि 31 दिसंबर 2023 तक रहेगी। हाल में हिमाचल और गुजरात विधानसभा के चुनाव से पहले इसे 3 महीने के लिए बढ़ाया गया था। इससे पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भी मुफ्त की इस योजना को विस्तार दिया गया था। इस बात के ठोस सबूत है कि इस तरह की योजना से सत्तारूढ़ दल को चुनावी लाभ मिलता है।
जरूरी बात यह है कि अवधि बढ़ोतरी के बाद कुल मिलाकर इस अन्न योजना पर साढे छह लाख करोड़ का खर्च होगा। तेल की कीमतें बढ़ने के कारण इस साल खाद्य अनुदान की राशि बढ़ेगी, जिसका वजन बजट आवंटन पर भी पड़ेगा। ऐसे में सवाल है कि क्या मुफ्त अन्न योजना की खातिर देश की जनता को और अन्य त्याग करने होंगे? क्योंकि वित्तीय दबाव के कारण सरकार को अग्निपथ योजना की राह पकड़नी पड़ी थी, हवाई अड्डों से अर्धसैनिक बलों की संख्या कम करनी पड़ी है, क्या आगे इसके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढांचा, पेंशन आदि में कटौती होगी? क्योंकि सरकार आने वाली कठिन चुनौतियों से भाग नहीं सकती।