यूपी| लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दल एक्टिव मोड में हैं. मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने का जश्न मना रही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बड़े नेता रैलियां कर रहे हैं, वहीं विपक्ष भी सक्रिय हो गया है. नीतीश कुमार की पहल पर पटना में विपक्षी एकजुटता पर महामंथन से पहले अब सीटों के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण राज्य यूपी में सियासी समीकरण बदलने की सुगबुगाहट हुई है.

कभी समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ रही ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) की बीजेपी से नजदीकियां बढ़ रही हैं. सपा और जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के बीच बढ़ती दूरी भी चर्चा में है. वहीं, अब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के रुख ने भी सूबे में बदलते सियासी समीकरणों के संकेत दे दिए हैं.

दरअसल, बसपा प्रमुख मायावती ने प्रदेश, मंडल और जिला कमेटी के पदाधिकारियों के साथ बैठक की. ये लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर समीक्षा बैठक थी. बसपा प्रमुख ने पार्टी पदाधिकारियों की बैठक में लोकसभा चुनाव समय से पहले कराए जाने की आशंका जताई और बूथ कमेटी का गठन 30 अगस्त की जगह 30 जुलाई तक कर लेने के निर्देश दिए.

मायावती ने बैठक के बाद बयान जारी किया तो सत्ताधारी बीजेपी के साथ ही सपा को निशाने पर लिया. उन्होंने बीजेपी सरकार पर ध्यान बांटने के लिए जातिवादी और सांप्रदायिक विवादों को शह देने का आरोप लगाया. साथ ही लव जिहाद, लैंड जिहाद, धर्मांतरण, हिजाब, मजार, मदरसा जांच, बुलडोजर पॉलिटिक्स और धार्मिक उन्माद फैलाने वाले नफरती बयानों को लेकर भी बीजेपी को घेरा.

बीजेपी के साथ ही सपा और कांग्रेस पर भी हमला बोलती रही हैं. लेकिन इसबार वो कांग्रेस का नाम लेने से बचती नजर आईं. विपक्षी एकजुटता की कवायदों से अब तक खुद को दूर रखने वाली मायावती ने ये जरूर कहा है कि विपक्ष में चल रही राजनीतिक हलचलों पर हमारी नजर है. कांग्रेस का नाम न लेना और फिर विपक्ष में चल रही राजनीतिक हलचल का जिक्र करना. सवाल ये है कि क्या मायावती के सुर क्यों बदल गए हैं?

विपक्षी दलों की बैठ से ठीक एक दिन पहले मायावती के रुख में आए बदलाव को लेकर राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं कि इसके कई पहलू हैं. वो कहते हैं कि कांग्रेस जिस तरह से कर्नाटक में दलितों को साथ लाने में सफल रही और जीत भी हासिल की. यूपी में भी कांग्रेस की नजर दलित वोट पर है और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे खुद दलित बिरादरी से आते हैं. मायावती को कहीं न कहीं ये डर सताने लगा है कि कहीं उनके बचे-खुचे दलित वोट बेस में भी सेंध न लग जाए.

रशीद किदवई कहते हैं कि इस बदलाव को बसपा और बीजेपी के रिश्तों में हाल की कुछ कार्रवाइयों के बाद आई दूरी से जोड़कर भी देख सकते हैं. हाल ही में मायावती के भाई और भाभी के नाम बड़ी संख्या में फ्लैट्स का मामला सामने आया था. ऐसी कुछ कार्रवाइयां हाल के दिनों में मायावती के करीबियों, रिश्तेदारों के खिलाफ हुई हैं, उसके बाद बीजेपी के साथ उनके रिश्तों में दूरी आई है. कई मौकों पर विपक्ष से दूर और सरकार के साथ नजर आई मायावती बीजेपी की बी टीम का टैग भी हटाना चाहती हैं.

बसपा के रुख में ये बदलाव ऐसे समय में आया है जब पार्टी के कुछ नेताओं के कांग्रेस मुख्यालय पहुंच गठबंधन की संभावनाएं टटोलने की खबरें आ रही थीं. क्या मायावती के रुख में आया बदलाव कांग्रेस और बसपा के साथ आने का संकेत है? इस सवाल पर उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता अंशु अवस्थी कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता.

उन्होंने कहा कि हम तो चाहते हैं कि बीजेपी को हराने के लिए सभी पार्टियां साथ आएं. अंशु अवस्थी ने ये भी कहा कि 23 जून की पटना बैठक के बाद अभी और भी चीजें बदलेंगी. उन्होंने मायावती के हर हलचल पर नजर वाले बयान को लेकर कहा कि बसपा ऐसी कोई अकेली पार्टी नहीं है. कई दल ऐसे हैं जिनकी नजर 23 जून की बैठक पर है.

यूपी में बसपा का वोट शेयर लगातार कम होता जा रहा है. कभी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार चला चुकी पार्टी आज सूबे की विधानसभा में एक सीट पर है. बसपा यूपी की सियासत में हाशिए पर है. बसपा को सपा या कोई और दल नहीं, कांग्रेस से गठबंधन की संभावना क्यों नजर आई? इस पर रशीद किदवई ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा, सपा के साथ गठबंधन कर ही चुनाव मैदान में उतरी थी. सपा के साथ गठबंधन को लेकर बसपा के नेता ये कहते रहे कि अनुभव अच्छा नहीं रहा. अब 2022 के चुनाव परिणाम के बाद बसपा उस मनोदशा में नहीं है कि अकेले चुनाव मैदान में उतरने की हिम्मत जुटा सके. वह भी तब, जब 2014 में पार्टी शून्य सीटों पर सिमट गई थी.

उन्होंने कहा कि अगर बसपा फिर से सपा के साथ गठबंधन की कोशिश करे भी तो उसे अखिलेश की शर्तों पर जाना होगा. पार्टी को इसी से दिक्कत है. मायावती अपनी शर्तों पर, अपने मनमुताबिक गठबंधन करना चाहती हैं. कांग्रेस के साथ गठबंधन की दशा में बसपा को राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी सियासी लाभ नजर आता है. दूसरी बात ये है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात होगी तो बसपा लीड रोल में होगी. कांग्रेस उस स्थिति में नहीं है जहां से वह बसपा के साथ गठबंधन में अपनी शर्तों पर अड़ सके.