नई दिल्ली. बचपन से अपने घर में, रिश्तेदारों के यहां और आस पड़ोस में मैंने घर की महिलाओं को खर्चों को मैनेज करते देखा है। एक रुपया, दस रुपये जमा कर कर के उन्हें घर के लिए बड़ी चीजें खरीदते भी देखा है। आमतौर पर हम भारतीय मिडिल क्लास घरों में महिलाओं द्वारा की गई यही बचत समय पड़ने पर बहुत काम की साबित होती है। इसी तरह घर खर्च चलाने से लेकर बाजार से खरीदारी करने तक बहुत सावधानी से, किफायत के साथ और सटीक तरीके से महिलाएं फाइनेंस के मैनेजमेंट का काम करती हैं। इसके बावजूद जब नौकरी में फाइनेंस विभाग सम्भालने की बारी आती है तो उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है।

आज के दौर में जब महिलाएं सारे काम बखूबी कर रही हैं। यह अंतर अखरता है। और अब जब हमारी वित्त मंत्री ही महिला हैं जो पूरे देश का फाइनेंस सम्भाल रही हैं। तब महिलाओं की इस स्थिति के बारे में सोचने की जरूरत और भी बढ़ जाती है। मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि महिलाओं को कैशियर, फाइनेंस या इसी तरह की भूमिकाएं देने के पहले यह हिचक होती है कि महिलाएं ये रिस्क वाला काम कर पाएंगी है नहीं?

वाकई काम आसान नहीं होता। जरा सा आंकड़ों का हेर फेर मुश्किल खड़ी कर देता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि महिलाएं इसे नही कर सकतीं। दिक्कत यह है कि खुद महिलाएं भी ये रिस्क लेने से हिचकती हैं। क्योंकि ज्यादातर मामलों में बचपन से उनकी परवरिश इस तरह की होती है कि वे सोचती हैं हमसे कोई गड़बड़ हो गई तो?

ये सोच ठीक ऐसी ही है जैसी किसी कीमती सामान के टूटने को लेकर होती है और यही होता है महिलाओं के आगे बढ़ने की राह का सबसे बड़ा रोड़ा। जब किसी काम को करने से पहले आपके मन मे ये शंका हो कि ये खराब हो गया तो क्या होगा? तो आगे बढ़ने में दिक्कत तो आएगी ही।

यहां यह सोचना जरूरी है कि लड़के जन्म से तो चीजें सीख कर नहीं आते। पढ़ाई भी उनके लिए कोई अलग नहीं होती। लेकिन रिस्क उठाने की उनकी आदत उन्हें आगे बढ़ा देती है। तो अगर एक तरफ लोगों को ये सोच बदलकर महिलाओं को भी वित्त से जुड़े मामलों की जिम्मेदारी सौंपनी होगी, वहीं महिलाओं को भी अपने आत्मविश्वास को बढ़ाकर रिस्क उठाना सीखना होगा।

जब मैंने एमबीए फाइनेंस से करने का निर्णय लिया तो घर के लोगों ने बढ़ावा ही दिया लेकिन कुछ लोगों ने ऐसी सलाह भी दी। “अरे एचआर में कर लो, लड़कियों के हिसाब से सबसे अच्छा डिपार्टमेंट होता है” या फिर “डिग्री ही तो लेनी है कॉरेस्पोंडेंस से कर लो!” जब कॉलेज पहुंची तो पाया यहां भी सोच में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। इसलिए ढेर सारे लड़कों के बीच फाइनेंस पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या मुट्ठीभर भी नहीं थी। आज मुझे इसी क्षेत्र में काम करते हुए 17 साल से ज्यादा वक्त हो गया है। हालांकि अब भी लड़कियों की संख्या तो ज्यादा नही है लेकिन एक बड़ा परिवर्तन मैंने जरूर देखा है। वो है लड़कियों और महिलाओं की फाइनेंस संबंधी निर्णय लेने की स्वतंत्रता में इजाफा।

आज बड़ी संख्या में न केवल नौकरीपेशा लड़कियां हमारे पास घर और गाड़ी के लिए अकेले लोन लेने आती हैं बल्कि वे पूरी रिसर्च करके आती हैं। उन्हें पूरी जानकारी होती है कि किस लोन को कैसे लेने से फायदा होगा। सबसे खास बात यह कि ज्यादातर मामलों में लड़कियां वक्त पर ईएमआई देती है, फटाफट लोन चुकता कर देती हैं और उनके सारे डॉक्युमेंट्स हमेशा कंप्लीट होते हैं। इतना ही नहीं म्यूचल फंड्स से लेकर निवेश के अन्य साधनों तक की उनको अच्छी जानकारी होती है। यह परिवर्तन अच्छा लगता है।

एक बात यह भी है कि विवाह के बाद परिवार की जिम्मेदारी को लेकर भी लोगों की सोच होती है कि महिलाएं अब जिम्मेदारी ठीक से नही संभाल पाएंगी और उनको या तो कम जिम्मेदारी वाले काम सौंप दिए जाते हैं या फिर वे नौकरी ही छोड़ देती हैं। वहीं हमारे यहां अब भी लड़कियों को इस सोच के साथ बड़ा किया जाता है कि उनकी डिग्री उनके वैवाहिक बायोडाटा में वजन डालने के लिए है। इसलिए लड़कियां खुद भी शादी के बाद जॉब छोड़ देती हैं। यही कारण है कि ऊंचे पदों तक कम लड़कियां पहुंच पाती है। परिवार अगर जिम्मेदारियां साझा करता है तो आसानी से सब मैनेज हो सकता है और लड़कियां भी पूरी तरह फोकस होकर करियर बना सकती हैं।