ग्वालियर। 50 वर्षीय हिंदू महिला हमारी पड़ोसी थी। वह एक स्वाभिमानी और देशभक्त महिला थीं और श्रीनगर के एक कॉलेज में पढ़ाती थीं। जहां पढ़ाती थीं वहां हिंदू कश्मीरी पंडितों के अलावा मुस्लिम छात्र भी पढ़ते थे। आतंकी ये नहीं चाहते थे कि मुस्लिम बच्चे पढें इसलिए उन्होंने महिला शिक्षिका को धमकाया। लेकिन वह शिक्षिका सिद्धांतों पर दृढ़ थी, इसलिए डरी नहीं । लेकिन अचानक एक सुबह हमें पता चला कि पुलिस शव लेकर उसके घर आयी है। जब कपड़ा हटाया गया तो देखा कि आतंकियों ने आरी से शिक्षिका के शव को तीन टुकड़ों में काट कर घर भेज दिया है। यह वह घटना थी जिसने उस क्षेत्र के हिंदुओं में भय पैदा कर दिया था।

इसके बाद हम सब वहां से चले गए। यह कहना है श्रीनगर, कश्मीर के एक वयोवृद्ध दवाओं के दिग्गज व्यापारी रहे डा. एसके रैना का। वह कहते हैं- ‘1988 तक सब कुछ ठीक था। इसके बाद माहौल बदलने लगा। 1989 में जब पाकिस्तान ने भारत को एक क्रिकेट मैच में हराया तो पड़ोसी मुस्लिम लड़के घर में आकर पैसे मांगने लगे और बोले- ‘हमारी टीम जीत गई। मिठाई खायेंगे, पैसे दो। माहौल इतना डरावना था कि हमें पैसे देने को मजबूर होना पड़ा। तब हम भारत की जीत का जश्न भी नहीं मना सकते थे। अगर पाकिस्तान किसी टीम से हार जाता तो हमारे घरों पर पत्थर फेंके जाते। हिंदुओं को पीटा जाता। बच्चे घर से बाहर जाने से डरते थे क्योंकि मुस्लिम पड़ोसी अक्सर उनसे पूछते थे कि तुम यहां से कब भागोगे।

उस रात मस्जिदों से अनाउंसमेंट हुई- ‘भागो या मरो, डॉ. रैना कहते हैं- ‘समय बीतने के साथ आतंक बढ़ता गया। मस्जिदों के लाउडस्पीकर से घोषणा की जाती कि जल्दी यहां से भाग जाओ, नहीं तो तुम मर जाओगे। आधी रात को गोलियों और बम धमाकों की आवाजें सुनाई देती रहती। हालात इतने खराब हो गए कि रात भर पूरे परिवार को घर से भागना पड़ा। वहां से वह पहले अन्य लोगों के साथ जम्मू में एक टेंट में आकर रहे और फिर ग्वालियर आ गए और जीवन की नई शुरुआत की। शिक्षित होकर ग्वालियर के श्यामलाल महाविद्यालय में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई, जबकि मेरी पत्नी नैन्सी रैना को स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिल गई।

नैंसी रैना कहती हैं- ‘संयुक्त परिवार होने के कारण हमारा घर तीन मंजिला था। हमारा अपना घर हमारे मोहल्ले में सबसे बड़ा था। सामने बहुत सारे कमरे, एक बड़ी छत और एक बड़ा आंगन था। लेकिन हमारे प्यारे घर के ये सारे गुण हमारे लिए परेशानी का सबब बनते जा रहे थे। दरअसल, उस घर पर आस-पास के मुसलमानों की नजर थी। वे हमारे सामने बात करते थे कि जब तुम यहां से भागोगे तो मेरा बेटा तुम्हारे कमरे में रहेगा और हम तुम्हारे माता-पिता के कमरे में होंगे। उन्होंने यह भी तय कर लिया था कि अगर हम नहीं भागे तो हमें मार दिया जाएगा। कुछ मुस्लिम पड़ोसी भी आपस में झगड़ते थे कि कौन सा मुसलमान किस हिंदू के घर पर कब्जा करेगा। इसके बाद दिसंबर 1989 के महीने में स्थिति तेजी से बिगड़ने लगी और जनवरी 1990 में स्थिति और खराब हो गई। आखिरकार मस्जिदों से अनाउंसमेंट आने लगी और हमें अपना घर, संपत्ति, खेती आदि छोड़कर भागना पड़ा।

डा रैना कश्मीर घाटी छोड़ने के अपने दुखद अनुभव का सार बताते हुए कहते हैं – ‘उन दिनों श्रीनगर में गोलीबारी और बम विस्फोट आम बात थी। जब मस्जिदों से खुलेआम नारे लगे कि कश्मीरी पंडितों को गुलाम बना लेंगे, तो उन्हें बचाने के लिए न तो पुलिस आई और न ही कोई राजनेता। फिर हमने सबक सीखा कि हमें अपनी रक्षा के लिए प्रयास करने होंगे, कोई हमें बचाने नहीं आएगा। शुभचिंतकों और खूंखारों के बीच जीवित रहने के बाद, हमारा अनुभव हमें बताता है कि हिंदुओं को अपनी रक्षा के लिए स्वयं प्रयास करने होंगे। 1990 में जो हालात कश्मीर में पैदा हुए थे, वही हालात आज देश के कई हिस्सों में दिखाई दे रहे हैं। वही पैटर्न, वही चरित्र, वही कूटनीति और वही कट्टरता। बंगाल और केरल को तो देश देख ही रहा है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने परिवार की सुरक्षा के लिए सरकार या पुलिस पर निर्भर रहने की मानसिकता छोड़नी होगी।