वाशिंगटन. अमेरिकी मुद्रा डॉलर के लगातार मजबूत होने से दुनिया के अनेक देशों में मुसीबत बढ़ रही है। इस वर्ष दुनिया की लगभग तमाम करेंसियों के मुकाबले डॉलर का भाव असामान्य रूप से बढ़ा है। औसतन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं की तुलना में यह 10 फीसदी से अधिक मजबूत हुआ है। इस तरह वह दो दशक के अपने सबसे ऊंचे स्तर पर है।

अमेरिकी पर्यटक इसका खूब लाभ उठा रहे हैं। मसलन, पहले रोम यात्रा पर उन्हें 100 डॉलर खर्च करने पर जो वस्तुएं या सेवाएं मिलतीं, वे अब 80 डॉलर में उन्हें प्राप्त कर रहे हैं। लेकिन श्रीलंका से लेकर पाकिस्तान, मिस्र और घाना तक की अर्थव्यवस्थाओं पर इसकी बहुत गहरी मार पड़ी है। इस वजह से इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं डगमगा गई हैं।

अमेरिकी इन्वेस्टमेंट एजेंसी कैपिटल इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्री विलियम जैकसन ने टीवी चैनल सीएनएन से कहा- ‘इससे एक चुनौती भरा माहौल बना है।’ इसकी वजह यह है कि दुनिया का आधे से ज्यादा कारोबार आज भी डॉलर में होता है। इसके अलावा ज्यादातर देशों अंतरराष्ट्रीय बाजार से डॉलर में कर्ज लेते हैं। अब डॉलर महंगा होने से कर्ज के रूप में उन्हें ज्यादा रकम चुकानी पड़ रही है। उधर डॉलर की कमी के कारण उनके लिए आयात मुश्किल हो गया है।

विशेषज्ञों के मुताबिक दिया के विभिन्न हिस्सों में बन रहे मंदी के हालात के पीछे एक बड़ा कारण डॉलर का महंगा होना एक बड़ा कारण है। अमेरिकी बाजार से जुड़े लोगों में इन दिनों ‘डॉलर स्माइल’ (मुस्करता डॉलर) शब्द काफी लोकप्रिय है। लेकिन यूबीएस बैंक में संपत्ति रणनीति विभाग के प्रमुख माणिक नारायण ने कहा है- ‘ये मुस्कान बाकी दुनिया के ललाट पर चिंता की रेखाएं खींच रही है।’

इस परिघटना के कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए मुसीबत बनने के पीछे तीन कारण बताए जा रहे हैं। आम तौर पर ऐसे देशों पर विदेशों से डॉलर में लिए कर्ज का बोझ ज्यादा रहता है। अब उन देशों के लिए कर्ज और ब्याज को चुकाना पहले से ज्यादा मुश्किल हो गया है। इसलिए उनके कर्ज जाल में फंसने का अंदेशा रोज ज्यादा घना होता जा रहा है। इस वजह से श्रीलंका पहले ही डिफॉल्ट कर चुका है (यानी अपने को कर्ज चुकाने में अक्षम बता चुका है)।

इस परिघटना का दूसरा परिणाम तमाम देशों से पूंजी के पलायन के रूप में सामने आया है। अंतरराष्ट्रीय निवेशकों को अब डॉलर में पैसा लगाना ज्यादा फायदेमंद दिख रहा है। इसलिए वे उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों से अपना पैसा निकाल रहे हैं। इस वजह से विभिन्न देशों की मुद्राओं का भाव गिर रहा है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि उपरोक्ता दोनों कारणों का परिणाम सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट के रूप में सामने आएगा। अगर देश जरूरत के मुताबिक आयात नहीं कर पाएंगे, तो उसका असर देश के अंदर उत्पादन और दूसरी आर्थिक गतिविधियों पर पड़ेगा। ऐसा ही अभी कई देशों में हो रहा है।

अमेरिकी थिंक टैंक काउंसिल ऑन फॉरेन अफेयर्स से जुड़े विशेषज्ञ ब्रैड सेटसर ने अपनी एक टिप्पणी में लिखा है- ‘फिलहाल मेरी नजर ट्यूनिशिया, घाना, केन्या और एल सल्वाडोर पर है। ट्यूनिशिया के लिए अपनी बजट जरूरतों को पूरा करना मुश्किल हो रहा है। घाना और केन्या पर कर्ज का भारी बोझ है। एल सल्वाडोर के बॉन्ड मैच्योर होने वाले हैं। उधर अर्जेंटीना भी मुश्किल में है। वह अभी तक 2018 में पैदा हुए मुद्रा संकट के असर से ही नहीं उबर पाया है।’