इसका मतलब है कि ऐसे हिंदू पुरुष की बेटियां, जो बिना वसीयत किए मर जाते हैं, वे अपने पिता की स्व-अर्जित या दूसरी संपत्तियों में अपने हिस्से का दावा कर सकेंगी. उन्हें स्वर्गीय पिता के भाइयों या ऐसे भाइयों के बेटे या बेटियों पर वरीयता दी जाएगी.

न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की बेंच ने मुकदमे की सुनवाई की और 51 पन्नों का फैसला सुनाया जिसमें प्राचीन हिंदू उत्तराधिकार कानूनों और तमाम अदालतों के पुराने फैसलों का ज़िक्र किया गया है.

बेंच ने कहा, “हिंदू पुरुष की स्व-अर्जित संपत्ति या परिवार की संपत्ति के बंटवारे में हासिल हिस्सा पाने के एक विधवा या बेटी के अधिकार की न केवल पुराने परंपरागत हिंदू कानून के तहत बल्कि तमाम अदालती फैसलों में भी अच्छी तरह से पुष्टि की गई है.”

लड़कियों की शादी की उम्र 18 से 21 करने का विरोध, मुस्लिम पर्सनल लॉ में अतिक्रमण बताया
पाकिस्तानः विदेशी दुल्हन को मिल जाती है नागरिकता, दूल्हे को क्यों नहीं?
रामपुर रियासत की ढाई हज़ार करोड़ की संपत्ति का कैसे होगा बंटवारा, 49 साल से चल रहा विवाद
मिस्र में फांसी का इंतज़ार कर रहे पाकिस्तानी, और उनके बिखरे परिवार

इस फैसले में तीन अहम बातें हैं
1. बिना वसीयत किए मरे हिंदू पुरुष की बेटियां, पिता द्वारा स्व-अर्जित और बंटवारे में हासिल दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने की हक़दार होंगी और उसे परिवार के दूसरे हिस्सेदार सदस्यों पर वरीयता मिलेगी.

2. 1956 से पहले की प्रॉपर्टी की विरासत में बेटी का अधिकार भी शामिल होगा

3.अगर एक हिंदू महिला कोई संतान छोड़े बिना मर जाती है, तो उसके पिता या मां से विरासत में मिली संपत्ति उसके पिता के वारिसों चली जाएगी जबकि उसके पति या ससुर से विरासत में मिली संपत्ति पति के वारिसों को चली जाएगी.

इससे पहले कि हम इन बिंदुओं को और गहराई से देखें, यह याद रखना जरूरी है कि हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में बनाया गया था. यह कानून हिंदुओं की विरासत और प्रॉपर्टी के दावों का निपटारा करता था.

हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अनुसार, बेटियों का अपने पिता की स्व-अर्जित प्रॉपर्टी पर बेटों के बराबर हक़ है, और अगर पिता बिना वसीयत किए मर जाता है तो बेटी की वैवाहिक स्थिति का उसके प्रॉपर्टी के अधिकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

अगस्त 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाया था कि 1956 में हिंदू कोड बनाए जाने के समय से ही बेटियों को पिता, दादा और परदादा की प्रॉपर्टी में बेटों की तरह ही विरासत का हक़ है.

अब यह फैसला महिलाओं को इससे पहले की भी पिता की स्व-अर्जित या दूसरी प्रॉपर्टी को विरासत में पाने का अधिकार देता है. इसका मतलब है कि ऐसी महिलाओं के कानूनी वारिस अब प्रॉपर्टी में अपने अधिकार को फिर से हासिल करने के लिए दीवानी मुकदमा दायर कर सकते हैं.

प्रॉपर्टी में हिस्से की हकदार
वकील ज्योत्सना दासलकर 60 साल की हैं और उन्होंने प्रॉपर्टी, तलाक़ और विरासत के मुकदमों में बहुत सी महिलाओं की मदद की है.

उनकी ज़िंदगी में एक ऐसा भी वक्त आया जब वो और उनके भाई में बातचीत बंद हो गई थी, क्योंकि उन्होंने मांग रख दी थी कि वो और उनकी बहनें भी अपने पिता की प्रॉपर्टी में हिस्से की हकदार हैं.

“मैंने कभी भी अपने भाई को अदालत में घसीटने के बारे में नहीं सोचा. तब मेरा कोई मददगार नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में महिला के अपनी प्रॉपर्टी पर अधिकार को मान्यता दी, लेकिन एक रुकावट थी. सिर्फ 1994 के बाद शादी करने वाली महिलाएं ही ऐसा दावा कर सकती थीं. मेरी शादी 1980 में हुई थी. अगर यह फैसला तब आया होता तो मैं शायद कानूनी कदम उठाती.

हक का दावा
अब इन पुरानी बातों का कोई मतलब नहीं है और वह अब भी अपने भाई के खिलाफ दीवानी मुकदमा दायर कर सकती हैं, लेकिन उनकी ऐसी ख्वाहिश नहीं है.

“एक दशक से हमारे बीच सिर्फ रस्मी बातचीत होती है. अब अगर अपने वकील भाई से इस फैसले का मज़ाक में भी जिक्र कर दिया तो वह मेरा नंबर ब्लॉक कर देगा.” यह कहते हुए वह हंस देती हैं.

कोल्हापुर की रहने वाली ज्योत्सना दासलकर कहती हैं, “अब मुझे प्रॉपर्टी में हिस्सा नहीं चाहिए. हां, मेरी ज़िंदगी में कई बार ऐसा वक्त आया जब मुझे भारी आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन अब वह वक्त गुज़र गया है. हालांकि, मैं निश्चित रूप से नौजवान महिलाओं, खासकर जो विधवा, तलाकशुदा या अविवाहित हैं, को यही सलाह दूंगी कि वे अपने हक का दावा करें और यह भी जान लें कि कानून अब उनकी मदद कर सकता है. यह जानना अच्छा है कि आखिरकार, मेरे पास अधिकार है. चाहे मैं इसका इस्तेमाल करूं या नहीं, यह मायने नहीं रखता.”

महत्वपूर्ण फ़ैसला
विशेषज्ञों का मानना है कि हालांकि यह महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक अच्छा कदम है, लेकिन हकीकत तकलीफदेह हो सकती है.

पुणे की एडवोकेट रमा सरोदे कहती हैं, “यह शायद ही कभी मायने रखता है कि एक महिला क्या चाहती है. पहले, उसे पूरी तरह से उसके अधिकार से वंचित कर दिया गया था, फिर उसके अपने भाई द्वारा उसके पिता की प्रॉपर्टी में हक़ छोड़ने के लिए दस्तख़त करने को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल किया गया था और अब उसके पति द्वारा उसी प्रॉपर्टी को फिर से हासिल करने के लिए मुकदमा दायर करने का दबाव डाला जा सकता है. हर हालात में फैसला लेने वाले पुरुष होते हैं.”

लेकिन फिर भी यही मानती हैं कि यह फैसला महत्वपूर्ण है. जो लोग विरासत में बराबर का हर रखते हैं, उन्हें सहदायिक कहा जाता है.

“जिन महिलाओं की शादी 1994 से पहले हुई थी, उन्हें पहले सहदायिक नहीं माना जाता था. लेकिन इस फैसले ने अब उनके अधिकारों को मान्यता दे दी है. इसका मतलब है कि महिलाएं 1956 से पहले के भी अपने अधिकारों को दोबारा हासिल कर सकती हैं और अदालत ने 1994 की शर्त को भी खत्म कर दिया है.

एडवोकेट रमा सरोदे का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने परिभाषा को आसान बनाया है और उन महिलाओं की भी मदद की है, जिनके पास शादी के सही रिकॉर्ड नहीं होंगे.

यह आपसी रिश्तों पर कितना असर डालेगा?
सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले का मतलब है कि ऐसी महिलाओं के वारिस दीवानी मुकदमा दायर कर अपना अधिकार वापस पा सकते हैं.

रमा कहती हैं, “फैसला महिला को ही लेना चाहिए. अब सवाल यह है कि क्या महिला को ऐसा फैसला लेने का अधिकार है? मैंने उन महिलाओं को देखा है जिन्हें प्रॉपर्टी का दावा करने के लिए मजबूर किया गया है क्योंकि उन्हें उनके पति या ससुराल वालों द्वारा मजबूर किया गया था और साथ ही, महिला के अपने भाई के साथ रिश्ते भी ख़त्म हो गए थे.”

आखिरकार यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम एक समाज के रूप में कितना जागरूक हैं और महिलाओं का कितना अधिकार है. वह कहती हैं कि अदालत ने महिलाओं के लिए अपने हक़ का दावा करने का एक रास्ता बना दिया है.

फ़ैज़ान मुस्तफ़ा जाने-माने बुद्धिजीवी हैं और कानूनी विशेषज्ञ हैं. वे एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ हैदराबाद के वाइस-चांसलर हैं.

“इसमें ऐसी निःसंतान हिंदू महिलाओं के बारे में भी बात की गई है, जिन्हें उनके पिता से विरासत में प्रॉपर्टी मिली है. अगर ऐसी महिला बिना वसीयत किए मर जाती है, तो प्रॉपर्टी वापस सोर्स में चली जाएगी, यानी वह परिवार जहां से प्रॉपर्टी आई थी.”

उनका कहना है कि यह एक प्रक्रिया है, “पहला फैसला 2005 में आया था जब पिता की प्रॉपर्टी में महिलाओं को बराबर हक़ दिया गया था. लेकिन जन्म की तारीख को लेकर मसला था, जैसे कि उनका जन्म किस तारीख का होना चाहिए जिससे कि वो अपने हक़ का दावा कर सकें. इसे पिछले साल हल कर लिया गया था और अब यह फ़ैसला आया है. मुझे नहीं लगता कि कोई मुश्किल होगी, यह बहुत अच्छा फैसला है.”