लखनऊ. समाजवादी पार्टी ने राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू का विरोध किया और यशवंत सिन्हा का अपना समर्थन दिया. लेकिन अब सपा ने एक नया दांव चला है. दरअसल, उत्तर प्रदेश में विधान परिषद की दो सीटों पर उपचुनाव होना है. इसके लिए 11 अगस्त को वोट डाले जाएंगे और इस चुनाव में सपा ने संख्या बल ना होते हुए भी अपना एक उम्मीदवार उतारा है. यह उम्मीदवार आदिवासी समाज से आती हैं. इसके जरिए सपा ये मैसेज देने में जुट गई है कि वह आदिवासी समाज का विरोध नहीं करती बल्कि उसे अपने साथ लेकर चलती है. हालांकि इस चुनाव में पार्टी को जीत मिलने की उम्मीद काफी कम है.
उत्तर प्रदेश में विधान परिषद की दो सीटों पर 11 अक्टूबर को उपचुनाव के लिए वोट डाले जाएंगे. बीजेपी ने इन दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम की घोषणा शनिवार को ही कर दी थी. लेकिन रविवार को सपा ने भी एक सीट पर अपना उम्मीदवार उतार दिया. हालांकि पहले लगभग सपा ने इस चुनाव में अपना उम्मीदवार न उतारने का मन बनाया था. लेकिन आखिरी वक्त पर सपा ने जो दांव चला है, उसके जरिए उसने एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है.
पहला तो यह कि उसने जिसे अपना उम्मीदवार बनाया है वह आदिवासी समाज से आने वाली महिला हैं. पार्टी ने कीर्ति कोल को इस चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया है जो उत्तर प्रदेश के ट्राइबल इलाके सोनभद्र से आती हैं. वह छानवे विधानसभा सीट से चुनाव लड़ चुकी हैं. साथ ही अपना उम्मीदवार उतार के सपा ने निर्विरोध निर्वाचन की जो संभावना थी उसे खत्म कर दिया है. यानी अब इस उपचुनाव में 11 अगस्त को वोट डाले जाएंगे.
हालांकि सपा के पास वह संख्या बल नहीं है जिससे वह अपने उम्मीदवार को विधान परिषद के इस उपचुनाव में जीत दिला सके. लेकिन उसके बावजूद उसने दो सीटों में से सिर्फ एक सीट पर अपना उम्मीदवार उतारा है. दरअसल, इसके पीछे माना जा रहा है कि पार्टी की खास रणनीति है. जिस तरह से द्रौपदी मुर्मू का विरोध करके सपा की इमेज आदिवासी समाज का विरोध करने वाली पार्टी के तौर पर उभरी है, उससे 2024 को लोकसभा चुनाव से पहले बाहर आया जाए. इसीलिए पार्टी ने रणनीति के तहत कीर्ति कोल को अपना उम्मीदवार बनाया है. कीर्ति उसी इलाके से आती हैं, जहां उत्तर प्रदेश में विधानसभा की दो सीटें आदिवासी समाज के लिए रिजर्व हैं. कीर्ति कोल इससे पहले सपा की विधानसभा उम्मीदवार भी उसी क्षेत्र से रह चुकी हैं.
यूपी विधान परिषद का यह चुनाव वरीयता का चुनाव होता है. यानी विधायक उम्मीदवार के नाम के आगे वरीयता क्रम एक दो या तीन लिखते हैं. अब यह कैसे निर्धारण होता है कि किसे कितने वोट मिलने पर उसकी जीत सुनिश्चित होगी. इसके लिए जो फार्मूला है उसके अंतर्गत विधान परिषद की जितनी सीटों पर चुनाव होना है, उस संख्या में एक जोड़ते हैं. विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या में उससे भाग दे देते हैं. जो संख्या आती है उसमें फिर एक जोड़ देते हैं. इस तरह से 403 विधायकों के विधानसभा में विधान परिषद की एक सीट जीतने के लिए इस बार 135.3 वोट की आवश्यकता है. यानी विधान परिषद के एक सीट जीतने के लिए 135 विधायकों के वोट की जरूरत है. बीजेपी के लिए यह आंकड़ा जुटाना बेहद आसान है.
बीजेपी के पास अपने 255 विधायक हैं, उसके सहयोगी अपना दल के 12 विधायक हैं और निषाद पार्टी के छह विधायक हैं. यही संख्या मिलाकर 273 हो जाती है. जबकि राष्ट्रपति चुनाव में जिन लोगों ने बीजेपी की मदद की अगर उनको भी जोड़ लिया जाए तो शिवपाल यादव का एक वोट, राजा भैया के 2 वोट और ओम प्रकाश राजभर के 6 वोट यानी कि यह संख्या बढ़कर 282 हो जाती है. जबकि सपा की बात करें तो उसके अपने कुल 111 विधायक है. शिवपाल यादव को उसमें से अलग कर दें तो 110 विधायक होते हैं. जबकि आरएलडी के आठ विधायकों को जोड़ दें तो ये संख्या 118 ही होती हैं. ऐसे में प्रथम वरीयता के 135 वोट से भी सपा पीछे छूट जाती है. जबकि दूसरी वरीयता में भी बीजेपी के दोनों उम्मीदवारों को उतने ही वोट मिलने की उम्मीद है.