नई दिल्ली. नोटबंदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को बड़ा फैसला सुनाया। कोर्ट ने इससे जुड़ी सभी 58 याचिकाओं को खारिज करते हुए केंद्र सरकार के फैसले को सही ठहराया। कोर्ट ने ये भी कहा कि नोटबंदी को लेकर सरकार ने सभी नियमों का पालन किया है। छह महीने तक सरकार और आरबीआई के बीच इस मसले को लेकर बातचीत हुई और इसके बाद फैसला लिया गया।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद ये साफ है कि सरकार ने ये फैसला अचानक से नहीं लिया था। इसके लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और सरकार के बीच सभी प्रकियाओं का पालन किया गया था। सरकार ने इसे साबित करने के लिए कोर्ट में कई दस्तावेज भी पेश किए हैं। इन छह महीनों के दौरान कई दौर की बातचीत के बाद सामूहिक तौर पर लिया गया था। हालांकि, अभी भी कई ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब कोर्ट की इस सुनवाई में नहीं मिल पाई। आइए जानते हैं…
केंद्र सरकार ने साल 2016 में आठ नवंबर की रात 500 और 1000 रुपए के नोटों को बंद कर दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद राष्ट्र के नाम संबोधन में इसका एलान किया था। सरकार के इस एलान के बाद देशभर के बैंकों, एटीएम पर लंबी-लंबी लाइनें लगी हुई दिखी थीं। लोगों ने पुराने नोट बदलकर नए नोट हासिल करने के लिए काफी जद्दोजहद की थी।
सरकार के नोटबंदी के फैसले को विपक्ष ने मुद्दा बनाया। केंद्र सरकार पर तमाम तरह के आरोप लगाए थे। विपक्ष ने इसे बिना सोचे-समझे लिया गया फैसला बताया था। यहां तक आरोप लगे थे कि प्रधानमंत्री मोदी ने इसके लिए संबंधित पक्षों से बात तक नहीं की थी। इसके खिलाफ कोर्ट में 58 अलग-अलग याचिकाएं दाखिल हुईं थीं। इनपर लंबी सुनवाई के बाद कोर्ट ने सात दिसंबर को आदेश सुरक्षित रख लिया था।
नोटबंदी के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए पांच जजों की बेंच ने अहम फैसला सुनाया। जस्टिस एस अब्दुल नजीर ने इसकी अध्यक्षता की। इस बेंच में जस्टिस नजीर के अलावा जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस वी रामासुब्रमण्यन और जस्टिस बीवी नागरत्ना शामिल रहे।
कोर्ट ने सरकार के नोटबंदी के कदम को सही ठहराते हुए इसके खिलाफ दायर सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा है कि यह निर्णय कार्यकारी की आर्थिक नीति होने के कारण उलटा नहीं जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि नोटबंदी से पहले केंद्र और आरबीआई के बीच सलाह-मशविरा हुआ था। इस तरह के उपाय को लाने के लिए दोनों के बीच एक समन्वय था। कोर्ट ने कहा है कि नोटबंदी की प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। आरबीआई के पास विमुद्रीकरण लाने की कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है और केंद्र और आरबीआई के बीच परामर्श के बाद यह निर्णय लिया गया।
कोर्ट में सरकार की तरफ से पेश किए गए हलफनामे से साफ हो गया है कि इसके लिए लंबे समय से सरकार और आरबीआई की बातचीत चल रही थी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकार ने अचानक हुई नोटबंदी के बाद के हालात को लेकर कुछ सोचा था? अगर हां तो इसके लिए क्या-क्या तैयारियां की गईं थीं? अगर नहीं तो क्यों नहीं इतना बड़ा फैसला लेने से पहले उसके बाद होने वाली अव्यवस्थाओं के बारे में सोचा गया?
ये देश का सबसे बड़ा फैसला था। हर कोई इससे जुड़ा था। ऐसे में ये तय था कि अचानक होने वाले इस फैसले से बैंकों और एटीएम के बाहर लंबी-लंबी लाइनें लग जाएंगी। पूरे देश में भगदड़ की स्थिति होगी। ऐसे में क्या सरकार ने बैंकों और एटीएम के बाहर लगने वाली लाइनों के बारे में सोचा था?
500 और 1000 के पुराने नोटों के बदले सरकार ने दो हजार रुपये के नोट जारी किए थे। जब ये नोट लॉन्च हुए तो एटीएम के कैश बॉक्स में उन दो हजार नोटों का साइज नहीं था। कैश बॉक्स में दो हजार नोट रखने की व्यवस्था करने में काफी लंबा समय लग गया था। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर सरकार इसको लेकर छह महीने से तैयारी कर रही थी तो इसको लेकर क्या कदम उठाए गए थे?
सरकार ने नोटबंदी के बाद तर्क दिया था कि इससे कालाधन रखने वालों को नुकसान होगा। नकली नोटों का कारोबार बंद हो जाएगा और आतंकियों की फंडिंग भी रुक जाएगी। अब नोटबंदी के सात साल बाद सवाल उठता है कि क्या वाकई में ये सबकुछ बंद हो गया है? अब बाजारों में नकली नोटों का कारोबार नहीं होता और आतंकियों की फंडिंग भी रुक गई? क्या कालाधन अब नहीं रखा जा रहा है?
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 8 नवंबर, 2016 को केंद्र द्वारा घोषित नोटबंदी को चुनौती देने वाली 58 याचिकाओं के एक बैच पर सुनवाई की है। इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान 500 रुपये और 1,000 रुपये के करेंसी नोटों को बंद करने को गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण बताते हुए वरिष्ठ वकील चिदंबरम ने तर्क दिया था कि सरकार कानूनी निविदा से संबंधित किसी भी प्रस्ताव को अपने दम पर शुरू नहीं कर सकती है। ये केवल आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड की सिफारिश पर किया जा सकता है।
वहीं, 2016 की नोटबंदी की कवायद पर फिर से विचार करने के शीर्ष अदालत के प्रयास का विरोध करते हुए सरकार ने कहा था कि अदालत ऐसे मामले का फैसला नहीं कर सकती है जब ‘घड़ी को पीछे करने’ से कोई ठोस राहत नहीं दी जा सकती है।