अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने बीते सोमवार वॉशिंगटन में व्यापारियों के साथ हुई एक बैठक के दौरान कहा है कि क्वाड के सदस्य देशों में से एक भारत की यूक्रेन युद्ध पर प्रतिक्रिया ‘कुछ हद तक अस्थिर’ रही है.
उन्होंने कहा है कि पुतिन की आक्रामकता से निपटने की दिशा में चीन का मुक़ाबला करने के लिए बनाए गए क्वाड संगठन के तीन अन्य देशों अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की “प्रतिक्रिया बहुत कड़ी रही है.”
और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में कहा था कि “हम बड़े समूहों से दूर रहेंगे ताकि हम सभी देशों के प्रति मित्रवत बने रहे हैं और हम किसी भी समूह में शामिल नहीं होंगे.”
वॉशिंगटन के एक थिंकटैंक विल्सन सेंटर के एशिया प्रोग्राम के उप-निदेशक माइकल कुगलमैन कहते हैं, “इस बात में कोई शक़ नहीं है कि रूसी हमले के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया देने के लिए भारत पर दबाव पड़ रहा है.”
वो कहते हैं, “पहले के मुकाबले, अब तमाशबीन बने रहना एक बड़ा कूटनीतिक जोख़िम है क्योंकि जहां एक ओर यूक्रेन पर रूस का आक्रमण पिछले कई दशकों में सामने आई सबसे भयानक आक्रामकता है. वहीं, भारत के रिश्ते पश्चिमी देशों से इतने मजबूत कभी नहीं रहे.”
भारत ने एक हफ़्ते में तीन बार संयुक्त राष्ट्र में रूस के ख़िलाफ़ लाए गए निंदा प्रस्ताव की मतदान प्रक्रिया में भाग नहीं लिया.
इसके साथ ही ख़बरें आ रही हैं कि युद्ध की वजह से ऊर्जा कीमतों में उछाल आने के बाद रूस से कम दाम पर भारत के तेल के आयात में बढ़ोतरी हुई है. यही नहीं, भारत ने अब तक बेहद सावधानी बरतते हुए रूस की निंदा करने से खुद को रोका हुआ है. भारत इससे पहले रूस को ‘दीर्घकालिक’ और ‘समय के साथ परखे हुए मित्र’ की संज्ञा दे चुका है.
भारत और रूस शीत युद्ध के ज़माने से एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं और दोनों के बीच दशकों पुराने संबंध हैं. इसके साथ ही रक्षा क्षेत्र में रूस भारत का सबसे बड़ा निर्यातक है.
अमेरिका अब भारत को ये समझाने की कोशिश कर रहा है कि वक्त के साथ स्थितियां बदल चुकी हैं क्योंकि अमेरिका और भारत के बीच रिश्तों में गहराई आई है और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 150 अरब डॉलर का है जबकि रूस और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार मात्र आठ अरब डॉलर का है.
हाल ही में भारत की राजधानी दिल्ली पहुंची अमेरिकी विदेश मंत्रालय की राजनीतिक मामलों की अंडर सेक्रेटरी विक्टोरिया नुलैंड कहा था कि उनकी विदेश मंत्री एस जयशंकर समेत अन्य अधिकारियों के साथ “व्यापक और गहरी बातचीत” हुई है.
उन्होंने भारत और रूस के बीच ऐतिहासिक रिश्तों को स्वीकार किया लेकिन कहा कि “समय बदल गया है” और “भारत के रुख़ में बदलाव आया” है.
पत्रकारों से बात करते हुए नुलैंड ने कहा कि अमेरिका और यूरोप भारत के मज़बूत “रक्षा और सुरक्षा साझेदार” बनना चाह रहे थे. उन्होंने कहा कि अमेरिका भारत की रक्षा आपूर्ति को लेकर रूस पर निर्भरता कम करने में मदद कर सकता है.
इसके साथ ही उन्होंने कहा कि ये युद्ध निरंकुशता और लोकतंत्र की बीच जारी संघर्ष में एक अहम पड़ाव है जिसमें भारत के समर्थन की ज़रूरत थी.
वहीं कुगलमैन कहते हैं कि अमेरिका की ओर से इस तरह का स्पष्ट संदेश भारत के लिए अनजान स्थिति जैसी हो सकती है.
लेकिन भारतीय विशेषज्ञ ये मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि भारत कूटनीतिक दबाव में है. वे इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि क्वाड समूह के अन्य सदस्य देशों का रुख़ भारत के प्रति सहानुभूति भरा रहा है, और अमेरिका ने भी यूक्रेन को भारत की ओर से दी जा रही मानवीय सहायता को स्वीकार किया है.
पूर्व भारतीय राजनयिक जितेंद्र नाथ मिश्र ने कहा, “अगर क्वाड समूह में एक देश है जो कि अलग-थलग नहीं है तो वह भारत नहीं बल्कि अमेरिका है. अमेरिका जिस रणनीतिक साझेदार से ये चाहता है कि वह इंडो-पैसेफ़िक में चीन के जवाब के रूप में खड़ा हो, उसे रूसी हथियार या तेल ख़रीदने के लिए प्रतिबंधों के ज़रिए कमज़ोर करना अमेरिका के लिए फायदेमंद नहीं है.”
इसके साथ ही विशेषज्ञ कहते हैं कि रूस के साथ भारत के क़रीबी रिश्तों का मतलब ये नहीं है कि वह यूक्रेन संकट को लेकर संवेदनशील नहीं है.
वे पिछले हफ़्ते जापान के प्रधानमंत्री फूमिया किशिदा की भारत यात्रा के बाद उनके और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस साझा बयान की ओर इशारा करते हैं जिसमें दोनों नेताओं ने “यूक्रेन में जारी संघर्ष और मानवीय संकट के प्रति गंभीर चिंता” जताई है.
जानकार कहते हैं कि दोनों नेताओं ने “इस बात पर भी ज़ोर दिया कि समकालीन वैश्विक व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र चार्टर, अंतरराष्ट्रीय कानून और राज्यों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान पर आधारित है.”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति पुतिन और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की से भी हिंसा ख़त्म करने का आग्रह किया है. प्रधानमंत्री मोदी की सरकार 90 हवाई उड़ानों से 22 हज़ार भारतीय लोगों को यूक्रेन से निकालने में समर्थ हुई है.
वहीं रूस में पूर्व राजनयिक के तौर पर काम कर चुके अनिल त्रिगुणायत कहते हैं कि राष्ट्रपति बाइडन द्वारा ये कहना कि भारत की प्रतिक्रिया “अस्थिर” रही है, “संभवत: किसी तरह का मज़ाक” है.
वह कहते हैं, “भारत का रुख़ संतुलित और सिद्धांतों के आधार पर रहा है. भारत लोकतंत्र, संवाद, क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान और यूक्रेन की संप्रभुता के लिए खड़ा हुआ है. हमें रणनीतिक रूप से तटस्थ रहना है. इसके अलावा कोई और चारा भी नहीं है.”
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में विदेश नीति के प्रोफ़ेसर हैपीमॉन जैकब मानते हैं कि “भारत पर दबाव बढ़ा नहीं है और वह अब तक इन विरोधाभासों को ठीक ढंग से संभाल रहा है. सवाल ये है कि क्या भारत कुछ और भी कर सकता था.”
भारत के पूर्व विदेश सचिव शिव शंकर मेनन ने द वायर के साथ बातचीत में कहा है कि हालांकि, भारत सरकार ने इस संकट को बेहतरीन ढंग से संभाला है लेकिन उसे “जो कुछ जैसा है, उसे स्पष्टता के साथ कहना चाहिए था. ये एक हमला है. ये एक युद्ध है. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो इससे आपकी साख प्रभावित होती है.”
हालांकि, कुगलमेन कहते हैं कि भारत के साथ रूस के ख़ास रिश्ते “पुराने अनुभव और गहरे भरोसे की बुनियाद पर टिके हैं” जिसका मतलब ये है कि भारत आसानी से अपने सहयोगी के ख़िलाफ़ नहीं जाएगा.
वे कहते हैं, “इस तरह का रुख़ मुश्किल से बदलता है चाहे रूस ने सोच-समझकर बड़ा हमला किया हो. लेकिन इसके साथ ही भारत पश्चिमी देशों के साथ भी अपने संबंधों को अलग-थलग नहीं करना चाहता है.”
विशेषज्ञ कहते हैं कि अलग-थलग होने से बचने के लिए भारत खुद को एक मध्यस्थ के रूप में पेश कर सकता है जिसका आग्रह भारत में यूक्रेन के राजदूत इगोर पोलिखा ने युद्ध की शुरुआत में किया था.
कुगलमेन कहते हैं, “भारत रूस के साथ अपने गहरे रिश्तों और यूक्रेन के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्तों के दम पर दोनों पक्षों को तनाव कम करने की कोशिश करने के लिए मना सकता है.”
“निश्चित रूप से पुतिन को मनाना मुश्किल हो सकता है. लेकिन अगर भारत कम से कम तनाव कम करने की दिशा में प्रयास करता है तो यह इस मामले में पश्चिमी देशों का साथ नहीं देने की वजह से पश्चिमी दुनिया के साथ संभावित तनाव को कम करने की दिशा में काम करना चाहिए.”
प्रोफ़ेसर जैकब भी इस बात से सहमत नज़र आते हैं. वे कहते हैं कि, “जब यूक्रेन ने मध्यस्थता का प्रयास किया था तो भारत को ये पेशकश स्वीकार कर सकता था. भारत के पास अभी भी ये अवसर है वह अभी भी इस दिशा में सोच सकता है और खुद को एक तटस्थ मध्यस्थ के रूप में पेश कर सकता है.”
वहीं, त्रिगुणायत कहते हैं कि लंबे वक्त में भारत को रणनीतिक स्वायत्तता की नीति का पालन करना चाहिए जो कि गुट-निरपेक्षता से बहुत अलग नहीं है. और ‘रणनीतिक एकता के लिए देशों’ का समूह बनाना चाहिए जिससे यूक्रेन के युद्ध के बाद सामने आने वाले द्वितीय शीत युद्ध, जो कि पहले से भी ज़्यादा गंभीर है, में उनके विकास से जुड़े हितों को साधा जा सके.
पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण का कहना है कि भारत के लिए यह एक बुरे सपने जैसी स्थिति होगी अगर “अमेरिका इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि उसे रूस से अधिक ख़तरा है और ऐसे में चीन के साथ एक रणनीतिक समझौता ठीक रहेगा.” वो कहते हैं कि स्पष्ट रूप से इसका मतलब है कि, “एशिया में चीन के प्रभुत्व को स्वीकार करना और यूरोप में अपने हितों की रक्षा करना.”