मेरठ में भाजपा के हरिकांत अहलूवालिया ने 2,35,953 मतों के साथ अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के अनस को करारी शिकस्त दी है। अनस को 1,28,547 वोट मिले। वहीं समाजवादी पार्टी की सीमा प्रधान 1,15,964 मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहीं। मेरठ में मेयर सीट पर 2017 में कब्जा जमाने वाली बसपा इस बार चौथे नंबर पर रही। मतगणना की शुरुआत में मुकाबला बेहद कड़ा नजर आया लेकिन समय के साथ भाजपा की स्थिति मजबूत होती गई। मेरठ मेयर के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM का निकटतम प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने आना चौंकाने वाला रहा…
इन चुनाव नतीजों ने साल 2019 के बिहार विधानसभा चुनाव की यादें ताजा कर दी। सियासी विश्लेषकों की मानें तो भाजपा की जीत में कई फैक्टर बेहद महत्वपूर्ण साबित हुए। इस चुनाव में मेयर पद के 15 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। इनमें से सात मुस्लिम उम्मीदवार थे। भाजपा की नजरें मुस्लिम मतों के बंटने पर टिकी थीं। ऐसा हुआ भी AIMIM के अनस को 1,28,547 वोट जबकि सपा उम्मीदवार सीमा प्रधान 1,15,964 को वोट मिले। यदि मुस्लिम वोट एकजुट होकर किसी एक जगह पड़ते तो नतीजे उलट भी हो सकते थे। सनद रहे मतदान के दिन अनस को लेकर बड़े बड़े दावे भी किए गए थे।
आखिरकार ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने बिहार विधानसभा चुनाव जैसा खेल कर दिया। अनस खुद नहीं जीत सके साथ ही सपा का खेल भी खराब कर दिया। इतना ही नहीं कांग्रेस के नसीम कुरैशी को 15473 और बसपा के हसमत को 54076 वोट मिले। मुस्लिम मतों के बंटने का सीधा फायदा भाजपा को मिला और उसे बंपर जीत हासिल हुई। भाजपा उम्मीदवार हरिकांत अहलूवालिया 1 लाख से ज्यादा मतों से चुनाव जीत गए। सनद रहे 2019 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी के कारण राजद को कई सीटों पर भारी नुकसान का सामना करना पड़ा था।
चुनावी विश्लेषकों की मानें तो भाजपा उम्मीदवार हरिकांत अहलूवालिया की जीत दो बातों पर टिकी थी। पहली बात यह कि मुसलिम वोट ज्यादा बंटें और दलित वोट कम कटें। अन्य पिछड़ा वर्ग से आने वाले अहलूवालिया के लिए दलित वोटों का कम कटना फायदेमंद साबित हुआ। इसमें मुसलिम मतों के बंटवारे ने चार चांद लगा दिया। मेरठ में बीते तीन चुनावों का इतिहास देखें तो बसपा ही मुख्य मुकाबले में रही थी। बसपा के अय्यूब अंसारी, शाहिद अखलाक और सुनीता वर्मा मेयर रहे। ट्रेंड से स्पष्ट था कि मेरठ में दलित-मुसलिम फैक्टर हावी रहा है। यही कारण रहा कि भाजपा बार बार दलित मतदाताओं को साधती नजर आई।