लख़नऊ। बसपा नेता मायावती उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए केवल जिताऊ उम्मीदवारों पर ही फोकस नहीं कर रही हैं, वे उन उम्मीदवारों को ज्यादा वरीयता दे रही हैं जो पार्टी की विचारधारा के प्रति ज्यादा प्रतिबद्ध हों। पिछले अनुभवों को ध्यान में रखते हुए पार्टी ऐसे उम्मीदवारों को टिकट नहीं देना चाहती है, जो चुनाव जीतने के बाद किसी कारणवश पार्टी बदलने की संभावना रखते हों। उम्मीदवारों की स्क्रूटनी के लिए मंडल स्तर पर नियुक्त पार्टी पदाधिकारियों को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि किसी उम्मीदवार के नाम के अनुमोदन के पहले वे अपने स्तर पर इस बात के लिए आश्वस्त हो जाएं कि उम्मीदवार पार्टी और नेतृत्व के प्रति कितना निष्ठावान है।

बहुजन समाज पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक अब तक के चुनावों में हम बहुत पहले उम्मीदवारों के नाम का एलान कर दिया करते थे। 2017 के विधानसभा चुनाब में भी अब तक हम लगभग 117 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर चुके थे। लेकिन इस बार उम्मीदवारों के चयन में अतिरिक्त सतर्कता बरती जा रही है। एक-एक दावेदारों की पिछली हिस्ट्री खंगाली जा रही है और उसके आधार पर उसकी विश्वसनीयता तय की जा रही है। यही कारण है कि इस बार प्रत्याशियों के चयन में देरी हो रही है।

अधिकारी ने बताया कि पिछले चुनावों में कई बार किसी सीट से एक प्रत्याशी के नाम की घोषणा होने के बाद अन्य दलों के प्रत्याशियों को देखने के बाद दूसरा ज्यादा बेहतर उम्मीदवार मैदान में उतार दिया जाता था, लेकिन इस चुनाव में ऐसा नहीं होगा। जिस सीट से किसी एक प्रत्याशी के नाम की घोषणा हो जायेगी, उसका नाम अंत तक फाइनल ही रहेगा। यही कारण है कि सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवारों का चयन अंतिम रूप से करने के बाद ही उनके नामों की घोषणा की जायेगी।

बसपा यह मानकर चलती है कि दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ है जो विपरीत परिस्थितियों में भी उसके साथ खड़ा रहता है। 2014, 2017 और 2019 के उन चुनावों में भी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे, तब यही वोट बैंक उसके साथ बना रहा। बसपा को सीटें भले ही न मिली हों, लेकिन उसका वोट प्रतिशत 20 के आसपास बना रहा। उसके प्रत्याशी हर सेट पर 40 से 50 हजार वोट प्राप्त करते रहे।

बसपा अभी भी मानकर चल रही है यह वोट बैंक उसके साथ बना रहेगा। अब वह ऐसे उपयुक्त उम्मीदवारों की तलाश कर रही है जो इस 20 फीसदी के वोट बैंक में अपने प्रभाव के हिसाब से अतिरिक्त वोट जोड़ सकें। पार्टी का आकलन है कि यदि विधानसभा क्षेत्रवार कोई उम्मीदवार अपने स्तर पर 10 फीसदी के आसपास वोट भी खींचने की क्षमता रखता होगा, तो उस सीट को अपना बनाया जा सकेगा। कहीं कुछ कमी रह भी जाती है तो पार्टी अपने प्रयास से इस कमी को भरकर उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने की कोशिश करेगी।

बसपा नेता के मुताबिक़ प्रदेश का चुनावी माहौल तेजी से बदल रहा है और सत्ता पक्ष के विरुद्ध जनता लामबंद होती जा रही है। ऐसे में इस बात की ज्यादा संभावना है कि भाजपा इस चुनाव में जादुई आंकड़े 202 से काफी पीछे रह जाए। साथ ही कोई अन्य दल भी इस संख्या तक पहुंचने से पीछे रुक सकता है। ऐसी स्थिति में प्रदेश में एक बार फिर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बन सकती है। पार्टी ऐसी किसी स्थिति में अपनी मजबूत दावेदारी रखने के लिए अपने पास मजबूत प्रत्याशी रखना चाहती है।

पिछला अनुभव रहा है कि पार्टी ने ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दे दिया, जो चुनाव जीतने के बाद सत्ता के साथ चले गये। इससे पार्टी की विचारधारा और उसकी राजनीतिक संभावनाओं को गहरी चोट पहुंची। पार्टी अब ऐसी किसी स्थिति से बचना चाहती है।

हाल ही में बसपा के कई नेता समाजवादी पार्टी में जाकर मिल गए हैं तो अनेक नेताओं ने बहुजन समाज पार्टी का दामन थामा है। लेकिन टिकट देते समय पार्टी बाहर से आये हुए नेताओं के बारे में भी बेहद गहन विचार-विमर्श के बाद ही उन्हें टिकट देने का कोई निर्णय करेगी।

बसपा इस विधानसभा चुनाव में अपना सामाजिक समीकरण साधने का करिश्मा दोबारा आजमाना चाहती है। इसके लिए पार्टी के सतीश चन्द्र मिश्रा जैसे नेताओं को जिम्मेदारियां दी गई हैं। टिकट वितरण में विधानसभा के समीकरणों को ध्यान रखते हुए ब्राहमण, दलित, मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग का एक उचित संयोजन चुनावी मैदान में उतारा जाएगा, जो पार्टी की जीत तय करने का काम करेंगे।