नई दिल्ली. किसानों का आंदोलन अब खत्म हो गया है. किसान इसे जहां एक बड़ी जीत की तरह देख रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश के राजनीति के मैदान में कुछ दल इसे अपने लिए एक उम्मीद की किरण मान रहे हैं. समाजवादी पार्टी और राष्ट्रवादी लोक दल किसानों के केंद्र के कृषि कानून बिल पर उभरे गुस्से को अपने लिए एक मौके की तरह देख रहे हैं. खासकर उत्तर प्रदेश में नए नए बने इस गठबंधन में संयुक्त रैली जिसे अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने संबोधित किया था के बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि दोनों दल सीटों के बंटवारे पर काम कर रहे हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि रालोद 40 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. माना जा रहा है कि सपा अपने उम्मीदवारों को कुछ सीटों पर आरएलडी के चिह्न के साथ चुनाव लड़वा सकती है वहीं रालोद के उम्मीदवार सपा के चुनाव चिह्न पर लड़ सकते हैं.
अखिलेश और चौधरी का संयुक्त रैली में जो भाईचारा दिखा वो इस बात की ओर इशारा करता है कि दोनों इस बार साथ में मिलकर योगी को पछाड़ने का मन बना चुके हैं. जिस तरह से सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने उपमुख्यमंत्री पद की बात कही और रालोद के राष्ट्रीय समन्वयक ने अखिलश का नेतृत्व स्वीकार करने की बात रखी वह इस ओर साफ इशारा करती है कि रालोद ने भी इस बार उत्तर प्रदेश को लेकर बड़े सपने संजो रखे हैं.
भाजपा के साथ गठबंधन में किया था सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन
हालांकि यहां गौर करने वाली बात यह है कि सपा उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए किसी तरह का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहती है. यही वजह है कि सपा जो पूरे प्रदेश भर में अभी भी एक ताकत रखती है. वहीं रालोद केवल पश्चिम उत्तर प्रदेश तक सीमित थी. लेकिन अब पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी इनका जोर अब धीरे धीरे घटता सा लग रहा है. इसलिए गठबंधन के मामले में उसकी स्थिति बगैर किसी सौदेबाजी के विकल्प के चुनने जैसी है. अगर रालोद के अब तक के बेहतरीन प्रदर्शन पर नज़र डालें तो वह 2002 के विधानसंभा चुनावों में था, जब इन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन कर 38 में से 14 सीट हासिल की थीं. यह सभी सीटें पश्चिम उत्तर प्रदेश की थीं. वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में इन्होंने अकेले लड़ने का फैसला किया जो इन पर भारी पड़ा था और इन्हें केवल एक सीट (छपेंद्र सिंह रामाला, छपरौली) ही मिल सकी थी. वो भी बाद में क्रॉस वोटिंग के चलते विधान सभा से निष्कासित हो गये थे.
मथुरा, बागपत में बढ़ा रालोद का वोट प्रतिशत
इसी बीच इन्होंने 2007 में अकेले लड़ने की कोशिश की और लोकसभा चुनाव 2012 और 2014 (लोकसभा चुनाव) में इन्होंने कांग्रेस का हाथ थामा. इसी तरह 2019 में सपा और बसपा दोनों का सहारा लिया, लेकिन यह कभी भी 14 के आंकड़े को पार नहीं कर सके. इसी दौरान रालोद को लोकसभा की दो मजबूत सीट मथुरा और बागपत के वोट की संख्या ने इन्हें एक उम्मीद ज़रूर दी है. 2014 में मथुरा में जहां पार्टी ने 22.6 फीसद वोट हासिल किए वहीं बागपत में इन्हें 19.68 फीसद वोट प्राप्त हुए. इसी तरह 2019 में यह वोट फीसद मथुरा में बढ़कर 34.21 फीसद और बागपत में 48 फीसद हो गया. पार्टी के नेताओं का कहना है कि 2014 में उनके वोट फीसद गिरने की वजह मुजफ्फरनगर के दंगे थे जिसने जाट-मुस्लिम इलाकों में एक दरार पैदा कर दी थी. यह दोनों ही उनके समर्थक हैं, लेकिन दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ थे जिसका असर चुनाव पर भी देखने को मिला.
रालोद का नारा ‘किसानों का इंकलाब होगा, 2022 में बदलाव होगा’
दिवंगत रालोद प्रमुख अजित सिंह से लेकर भागीदारी सम्मेलन तक पार्टी ने दोनों समुदाय के बीच की खाई को पाटने की कोशिश की है, साथ ही उच्च और पिछड़ी जातियों के बीच भी पुल बनाने का प्रयास किया है. इस प्रक्रिया में कृषि कानून को लेकर किसानों के उभरे गुस्से से मदद मिली. यह एक ऐसा गुस्सा है जो पूरे पश्चिम उप्र को एक सूत्र में बांधता है. रालोद ने अपने घोषणापत्र में महिलाओं को नौकरी में 50 फीसद का आरक्षण, 1 करोड़ युवाओं को रोज़गार, किसानों के मुद्दों को प्राथमिकता देने की बात की है. केंद्र के नए कृषि कानून को वापस लेने के बाद रालोद का कहना है कि वो सरकार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के मुद्दे पर दबाव बनाती रहेगी. सपा के साथ की गई रैली में रालोद ने नारा दिया है, ‘किसानों का इंकलाब होगा, 2022 में बदलाव होगा.’
रालोद के लिए उम्मीद की किरण हैं जयंत चौधरी
रालोद के आत्मविश्वास के पीछे एक वजह जयंत चौधरी खुद हैं. यह रालोद का पहला चुनाव है जो वह अजित सिंह के बगैर लड़ रही है, अजित सिंह की कोविड के चलते मई में मृत्यु हो गई थी. 42 साल के जयंत चौधरी ने यूके से वित्त में स्नातकोत्तर (पीजी) किया, और 2009 में मथुरा से सांसद बन कर राजनीति में प्रवेश किया. पार्टी के नेताओं का मानना है कि उनके सामने लंबी चुनौती है. इसलिए चौधरी को पार्टी को आगे ले जाने के लिए सही फैसले करने होंगे. हालांकि पार्टी का मानना है कि चौधरी का युवा होना और अपने पिता की तरह बार बार राजनीतिक अदल बदल नहीं करना उन्हें बेहतर बनाता है और पार्टी को नई उम्मीद देता है. हाल ही में उनकी दो दर्जन सभाओं में भी यह देखने को मिला, जहां इन्हें ‘सर्वसमाज का आशीर्वाद, चौधरी जयंत सिंह के साथ’, जैसे नारों के समर्थन मिला है.