लखनऊ। लोकसभा चुनाव का एलान होते ही सियासी दलों में समीकरणों को साधने का खेल शुरु हो गया है। इलाहाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा गठबंधन का मुकाबला सपा-कांग्रेस गठबंधन से होगा। वहीं, बसपा की सियासी चाल भी चुनाव की दिशा-दशा को काफी हद तक तय करेगा।

बसपा अकेले ही चुनाव लड़ने जा रही है। इससे सपा-कांग्रेस के सामने अपने वोटों का बिखराव रोकने की चुनौती होगी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी रीता बहुगुणा जोशी ने 55.62 फीसदी मत हासिल कर चुनाव जीता था।

दूसरे स्थान पर सपा-बसपा गठबंधन के प्रत्याशी राजेंद्र सिंह पटेल थे, जिन्होंने 34.89 फीसदी वोट बटोरे थे। वहीं, कांग्रेस के योगेश शुक्ला को महज 3.59 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। जबकि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम की बात करें तो भाजपा के प्रत्याशी श्यामाचरण गुप्ता ने 35.19 प्रतिशत वोट पाकर चुनाव जीता था।

दूसरे स्थान पर सपा के रेवती रमण सिंह थे, जिन्हें 28.24 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा की केशरी देवी पटेल 18.18 प्रतिशत और कांग्रेस की ओर से नंद गोपाल गुप्ता नंदी को इस चुनाव में 11.49 प्रतिशत वोट मिले थे।

वर्ष 2014 के मुकाबले इलाहाबाद लोकसभा सीट पर वर्ष 2019 में मोदी मैजिक ज्यादा असरदार साबित हुआ था। मोदी मैजिक के चलते ही रीता बहुगुणा जोशी ने सपा-बसपा के गठबंधन के प्रत्याशी को हराया था। वर्ष 2019 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी का वोट पूरी तरह से बिखर गया था। पार्टी को 2014 के मुकाबले करीब सात फीसदी कम वोट मिले थे।

मेजा, कोरांव, बारा, इलाहाबाद दक्षिण व करछना विधानसभा के मतदाता इलाहाबाद सीट के प्रत्याशी का भाग्य तय करते हैं। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में मेजा की सीट को छोड़कर अन्य सभी सीटों पर भाजपा व उनके सहयोगियों ने जीत दर्ज की थी।

इन पांचों विधानसभा सीट पर कुल 983171 लोगों ने वोट डाले थे, जिनमें से 44.37 फीसदी वोट भाजपा, 37.35 फीसदी वोट सपा और 9.98 प्रतिशत वोट बसपा के प्रत्याशी को प्राप्त हुए थे। वहीं, कांग्रेस पार्टी का विधानसभा चुनाव में बेहद खराब प्रदर्शन रहा है।

पार्टी को पांचों विधानसभा सीट पर कुल 3.34 फीसदी वोट ही प्राप्त हुए। मेजा विधानसभा सीट पर कांग्रेस की प्रत्याशी को नोटा से भी कम वोट प्राप्त हुए थे। पिछले दो लोकसभा और विधानसभा की सीटों के परिणाम देखकर सपा-कांग्रेस गठबंधन के पास पहली चुनौती वोटों के बिखराव को रोकने की होगी।

वहीं, बसपा भी अपने बिखरे वोटबैंक को समेटने की कोशिश में है। भाजपा की चुनौती भी यही रहेगी कि वह पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भी अन्य दलों के वोटबैंक में सेंध लगाए। राजनीति से जुड़े जानकारों का मानना है कि इन्हीं समीकरणों को देखते हुए सभी दल प्रत्याशी की घोषणा करने में काफी समय ले रहे हैं।

हर दल जातीय फैक्टर के साथ साथ प्रत्याशी की भी ताकत को पूरी तरह से आजमा लेना चाह रहे हैं। सभी दल की पहली कोशिश अपने वोटबैंक को समेटने और दूसरे दलों के वोटबैंक पर सेंध लगाने की है।