लखनऊ. बसपा की मुखिया मायावती ने रविवार को अपना 67वां जन्मदिन धूमधान के साथ मनाया, लेकिन इसी मौके पर उनके एक ऐलान ने यूपी समेत देश भर की सियासत में हलचल मचा दी। उन्होंने कहा कि इस साल होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी। साफ है कि मायावती यूपी की सभी 80 सीटों पर अकेले ही उतरने की तैयारी में हैं। उनका यह ऐलान अखिलेश यादव के लिए चिंता की बात हो सकती है, जो लगातार आंबेडकर और लोहिया की विचारधारा के लोगों को एक साथ लाने की बात करते रहे हैं।

विधानसभा चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान समेत कई ओबीसी और दलित नेताओं को साथ लाने वाले अखिलेश यादव लगातार यह दोहराते रहे हैं कि वह आंबेडकरवादी और लोहियावादी नेताओं को साथ लाना चाहते हैं। उनके इस बयान को बीएसपी का साथ पाने की कोशिश माना गया था, लेकिन अब मायावती के ऐलान से हालात बदलते दिख रहे हैं। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 17 अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं। इनमें से 15 पर 2019 में भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने जीत हासिल की थी। बसपा को महज 2 सीटें मिली थीं, जबकि सपा का खाता शून्य ही रह गया था। जिसे कुल 5 सीटें हासिल हुई थीं और बसपा के खाते में 10 आई थीं।

ऐसी स्थिति में यदि बसपा 2024 के आम चुनाव में लड़ती है तो भले ही वह इन रिजर्व सीटों पर खुद न जीत सके, लेकिन सपा के लिए यहां जीत हासिल करना बेहद मुश्किल होगा। इसके अलावा उन सीटों पर भी सपा को मुश्किल होगी, जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अधिक है। इनमें मेरठ, अमरोहा, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मऊ, सहारनपुर, आजमगढ़ जैसी सीटें शामिल हैं। इन सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के साथ ही दलित वोटरों की भी अच्छी संख्या है। इनका एक वर्ग बसपा को हमेशा से वोट करता रहा है। ऐसे में बसपा को ये वोट मिले तो सपा को मिलने वाले मुस्लिम और दलित वोटों में सेंध लगेगी। यह उसके लिए मुसीबत का सबब हो सकता है।

अखिलेश यादव ने भले ही 2022 के विधानसभा चुनाव में चंद्रशेखर के साथ गठबंधन नहीं किया था, लेकिन हालिया उपचुनाव के बाद से साथ हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि अखिलेश यादव बसपा के साथ तालमेल न बन पाने का डैमेज कंट्रोल चंद्रशेखर को साथ लेकर कर रहे हैं। हालांकि यह रणनीति पूरे यूपी में सफल होती नहीं दिखती। इसकी वजह यह है कि मेरठ और सहारनपुर मंडल के बाहर चंद्रशेखर का कोई खास जनाधार नहीं है। आज भी दलित वर्ग के एक बड़े हिस्से में मायावती की ही पहचान और साख है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि मायावती अकेले लड़कर कितनी सफल होती हैं और अखिलेश यादव चंद्रशेखर को साथ लेकर क्या हासिल कर पाते हैं। या फिर 2019 की तरह ही भाजपा फिर से विजय हासिल कर लेगी।