उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण के लिहाज से कांग्रेस के पास सिर्फ कुछ मुस्लिम और कुछ समर्पित पुराने कांग्रेसियों का वोट ही बचा है और जहां कोई मजबूत उम्मीदवार कुछ अतिरिक्त वोट जुटा लेता है वह मुकाबले में आ जाता है। क्योंकि कांग्रेस का मूल जनाधार सर्वण, दलित, मुस्लिम भाजपा-बसपा और सपा में बंट चुका है। अब कांग्रेस की वापसी तभी संभव है जब वह भाजपा से सवर्ण विशेषकर ब्राह्मण, सपा से मुस्लिम और बसपा से दलितों को वापस ले। इसके लिए कांग्रेस पिछले तीस सालों में कई प्रयोग करके देख चुकी है। लेकिन उसका ग्राफ गिरता गया है। जितेंद्र प्रसाद, सलमान खुर्शीद, अरुण सिंह मुन्ना, जगदंबिका पाल, श्रीप्रकाश जायसवाल, निर्मल खत्री और राजबब्बर जैसे दिग्गजों को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के बावजूद पार्टी उत्तर प्रदेश में न तो अपना खोया जनाधार पा सकी और न ही अपनी सीटों की संख्या तीन दर्जन से आगे कर सकी।
अब 2022 विधानसभा चुनावों में एक बार फिर कांग्रेस के लिए देश के सबसे बड़े राज्य में कुछ कर दिखाने का मौका है। बशर्ते कि कांग्रेस अपने पत्ते सही खेले। उत्तर प्रदेश में भाजपा इन दिनों जबर्दस्त भीतरी खींचतान और जातीय संघर्ष से जूझ रही है। चुनावों से पहले केशव प्रसाद मौर्य प्रदेश अध्यक्ष थे और बिना उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाए भी भाजपा ने पिछड़ों को यह संदेश दे दिया था कि सरकार बनने पर मौर्य ही मुख्यमंत्री होंगे, जबकि सवर्णों में दिनेश शर्मा, महेंद्र नाथ पांडे, मनोज सिन्हा जैसे नाम चलाए गए। लेकिन जब पार्टी को 325 सीटों का जबरदस्त बहुमत मिला तो अचानक योगी आदित्यनाथ को कमान दे दी गई। केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा को उप मुख्यमंत्री बनाकर पिछड़ों और ब्राह््रणों को संतुष्ट करने की कोशिश की गई। लेकिन अब चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं भाजपा के भीतर जातीय आधार पर खेमेबंदी तेज होती जा रही है। योगी सरकार पर एक जाति विशेष को विशेष संरक्षण देने के आरोप न सिर्फ विपक्षी दल बल्कि भाजपा के भीतर भी दबी जुबान से लगाए जाते हैं।
भाजपा की इस अंदरूनी खींचतान को कांग्रेस के कुछ नेता पार्टी के लिए अवसर मानते हैं। एक पूर्व केंद्रीय मंत्री के मुताबिक यह सही वक्त है जब किसी ब्राह्मण चेहरे को आगे करके पार्टी राज्य में ब्राह्मणों को अपनी ओर खींच सकती है। कभी कांग्रेस के युवा चेहरों में शुमार रहे इस कांग्रेस नेता का कहना है कि अगर कांग्रेस आक्रामक तरीके से ब्राह्मण कार्ड खेले तो सिर्फ संघ के शाखाधारी ब्राह्मणों को छोडकर ज्यादातर ब्राह्मण अपनी पुरानी पार्टी के साथ आ जाएंगे। क्योंकि उनके परिवारों ने पीढ़ियों से कांग्रेस का ही साथ दिया है और अगर ब्राह्मण कांग्रेस में वापस होते हैं तो मुसलमानों की बड़ी तादाद और अन्य जातियों का भी एक बड़ा हिस्सा वापस कांग्रेस की तरफ लौट सकता है। ऐसा होने पर आज सात सीटों वाली कांग्रेस 2022 में सौ सीटों के आसपास पहुंच सकती है, जो 2024 में लोकसभा की कम से कम 20 से 25 सीटें जीतने की जमीन तैयार कर सकती है जैसा कि 2009 में हुआ था।
अब सवाल है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास ऐसे कौन से चेहरे हैं, जिनमें से किसी एक को आगे करके राज्य के 12 फीसदी से ज्यादा ब्राह्मणों को अपनी ओर खींचने का दांव पार्टी चल सके। पिछली बार प्रशांत किशोर ने शीला दीक्षित को बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करवाया था और इससे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में कुछ जान भी आई थी, लेकिन बाद में सर्जिकल स्ट्राइक और सपा के साथ गठबंधन ने सारी रणनीति पर पानी फेर दिया था। इस बार कांग्रेस में ब्राह्मण नेताओं के नाम पर पूर्व मंत्री प्रमोद तिवारी, पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद, पूर्व सांसद राजेश मिश्रा, दिग्गज नेता पं.कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र ललितेश त्रिपाठी, पूर्व विधायक विनोद चतुर्वेदी जैसे कुछ नाम हैं। जबकि एक समय के दिग्गज ब्राह्मण नेता सत्यदेव त्रिपाठी, भूधर नारायण मिश्र, नेकचंद पांडे जैसों को कांग्रेस ने बाहर का रास्ता दिखाया हुआ है।
इनके अलावा एक और चर्चित नाम कल्कि पीठाधीश्वर आचार्य प्रमोद कृष्णम का है। प्रमोद कृष्णम जो साधु बनने से पहले कांग्रेस में ही थे और युवक कांग्रेस से लेकर कांग्रेस संगठन में कई पदों पर रह चुके हैं, उन गिने चुने साधुओं में हैं जो खुलकर कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार के लिए मीडिया में डटकर बोलते हैं। पार्टी उन्हें दो बार अपनी टिकट से लोकसभा चुनाव भी लड़ा चुकी है। 2014 में वह संभल से और 2019 में लखनऊ में राजनाथ सिंह के खिलाफ वह चुनाव लड़ चुके हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ समेत कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस उन्हें बतौर स्टार प्रचारक चुनाव प्रचार के लिए भेज चुकी है।
पिछले काफी समय से आचार्य प्रमोद कृष्णम उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर ब्राह्मणों की उपेक्षा उत्पीड़न और उन पर अत्याचार का आरोप लगाते हुए काफी हमले कर रहे हैं। कानपुर के विकास दुबे कांड में विकास और उसके साथियों की पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने को लेकर भी प्रमोद कृष्णम मीडिया में बहुत आक्रामक रहे हैं। ब्राह्मणों के मुद्दे पर कई बार उन्होंने कांग्रेस पार्टी की नीतियों की सीमा भी लांघी है। ब्राह्मणों के मुद्दे पर आचार्य के बाद जितिन प्रसाद भी खासे मुखर रहे हैं। पार्टी द्वारा पश्चिम बंगाल का चुनाव प्रभारी बनाए जाने से पहले उन्होंने पूरे प्रदेश में ब्राह्मणों का एक पूरा नेटवर्क सोशल मीडिया के जरिए बनाकर जहां भी किसी ब्राह्मण की हत्या या कोई और घटना हुई, जितिन प्रसाद ने उसका संज्ञान लेकर पूरी सूची जारी की और राज्य सरकार से पीड़ित परिवारों को पर्याप्त मुआवजा और सुरक्षा देने की मांग करके इस मुद्दे को गरम किया।
अब सवाल है कि क्या कांग्रेस इनमें से किसी को उत्तर प्रदेश में चेहरा बनाएगी। प्रमोद तिवारी जिनकी उत्तर प्रदेश में गाजियाबद से गोरखपुर तक पार्टी संगठन पर पकड़ भी है और पहचान भी, कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं में सबसे बड़ा नाम हैं। लेकिन कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक उनकी दिलचस्पी खुद प्रदेश अध्यक्ष या चेहरा न बन कर अपनी बेटी आराधना यानी मोना मिश्रा को आगे करने में है। जबकि राजेश मिश्रा उस वाराणसी से हैं जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सांसद हैं। इसलिए मोदी के मुकाबले उनका व्यक्तित्व कहीं नहीं ठहरता और उनका असर भी पूर्वांचल के वाराणसी के आसपास के जिलों तक ही सीमित है। बड़ी पारिवारिक विरासत के बावजूद यही स्थिति ललितेश त्रिपाठी की भी है।
जबकि जितिन प्रसाद को पार्टी ने पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन तब केंद्र में मंत्री बने रहने और राष्ट्रीय राजनीति में ही बने रहने में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी। हालांकि अब उन्हें अगर प्रदेश संगठन की कमान दी जाती है तो उन्हें बहुत कड़ी मेहनत करनी होगी। इसी तरह बुंदेलखंड के पूर्व विधायक विनोद चतुर्वेदी का प्रभाव भी महज बुंदेलखंड तक ही सीमित है। पूर्वांचल, मध्यप्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनकी कोई खास पहचान नहीं है।
अब बात आचार्य प्रमोद कृष्णम की। लगातार मीडिया में कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार का बेहद मजबूती और आक्रामक तरीके बचाव करने के कारण पार्टी कार्यकर्ताओं में उनकी खासी लोकप्रियता हो गई है। ब्राह्मणों के मुद्दे पर उनकी अत्याधिक मुखरता और साधुवेश ने उन्हें प्रदेश में कांग्रेस का एक आक्रामक ब्राह्मण नेता बना दिया है। कल्कि पीठाधीश्वर होने के कारण उन्हें आगे करके कांग्रेस चुनावों को हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण से बचा सकती है। साथ ही योगी बनाम आचार्य का मुकाबला बेहद दिलचस्प इसलिए भी हो जाएगा कि देश-प्रदेश के साधु समाज में भी खासा विभाजन हो सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संत जहां भाजपा और योगी आदित्यनाथ के साथ खड़े दिखाई देंगे तो वहीं इनके दायरे से बाहर के साधु संत आचार्य प्रमोद कृष्णम के साथ आ सकते हैं। 2018 के मध्यप्रदेश चुनाव में आचार्य यह करिश्मा कर चुके हैं, जब कंप्यूटर बाबा के नेतृत्व में हजारों साधुओं ने कांग्रेस के पक्ष में जबलपुर में जुलूस निकालकर अपना समर्थन दिया था। भाजपा के हिंदुत्व के मुकाबले कांग्रेस का यह हिंदू कार्ड मुसलमानों को भी इसलिए परेशान नहीं करेगा क्योंकि आचार्य प्रमोद कृष्णम की मुसलमानों में भी अच्छी खासी लोकप्रियता है और देश-प्रदेश के नामी गिरामी मुस्लिम धर्मगुरु उनके साथ आ सकते हैं।
लेकिन कांग्रेस नेतृत्व की समस्या ये है कि उसे फैसला और वह भी सही फैसला लेने में इतना वक्त लग जाता है कि तब तक उस फैसले का कोई मतलब नहीं रह जाता। इसलिए उत्तर प्रदेश में जहां अब एक-एक दिन अहम है, कांग्रेस अभी इसी उहापोह में है कि वह प्रदेश में अपना नेतृत्व और चेहरा बदले या जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दे। और प्रताप सिंह कैरो की कार से कुचलने वाले खरगोश की चर्चित कहानी कि खरगोश इसलिए मरा कि वह तय नहीं कर सका कि उसे आगे जाना है या पीछे जाना है। कांग्रेस पिछले लंबे समय से इसी दौर से गुजर रही है।