एक ताज़ा मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे दो व्यस्क जोड़ों की पुलिस सुरक्षा की मांग को जायज़ ठहराते हुए कहा है कि ये “संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिए राइट टू लाइफ़” की श्रेणी में आता है.

याचिकाकर्ताओं ने अदालत से कहा था कि दो साल से अपने पार्टनर के साथ अपनी मर्ज़ी से रहने के बावजूद, उनके परिवार उनकी ज़िंदगी में दखलअंदाज़ी कर रहे हैं और पुलिस उनकी मदद की अपील को सुन नहीं रही है.

कोर्ट ने अपने फ़ैसले में साफ़ किया कि, “लिव-इन रिलेशनशिप को पर्सनल ऑटोनोमी (व्यक्तिगत स्वायत्तता) के चश्मे से देखने की ज़रूरत है, ना कि सामाजिक नैतिकता की धारणाओं से.”

भारत की संसद ने लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई क़ानून तो नहीं बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसे रिश्तों के क़ानूनी दर्जे को साफ़ किया है.

इसके बावजूद इस तरह के मामलों में अलग-अलग अदालतों ने अलग-अलग रुख़ अपनाया है और कई फ़ैसलों में लिव-इन रिलेशनशिप को “अनैतिक” और “ग़ैर-क़ानूनी” करार देकर पुलिस सुरक्षा जैसी मदद की याचिका को बर्खास्त किया है.

पंद्रह साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने साल 2006 के एक केस में फ़ैसला देते हुए कहा था कि, “वयस्क होने के बाद व्यक्ति किसी के साथ रहने या शादी करने के लिए आज़ाद है.”

इस फ़ैसले के साथ लिव-इन रिलेशनशिप को क़ानूनी मान्यता मिल गई. अदालत ने कहा था कि कुछ लोगों की नज़र में ‘अनैतिक’ माने जाने के बावजूद ऐसे रिश्ते में रहना कोई ‘अपराध नहीं है’.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फ़ैसले का हवाला साल 2010 में अभिनेत्री खुशबू के ‘प्री-मैरिटल सेक्स’ और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के संदर्भ और समर्थन में दिए बयान के मामले में दिया था.

खुशबू के बयान के बाद उनके ख़िलाफ़ दायर हुईं 23 आपराधिक शिकायतों को बर्खास्त करते हुए कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था, “इसमें कोई शक नहीं कि भारत के सामाजिक ढांचे में शादी अहम है, लेकिन कुछ लोग इससे इत्तेफाक नहीं रखते और प्री-मैरिटल सेक्स को सही मानते हैं… आपराधिक क़ानून का मकसद ये नहीं है कि लोगों को उनके अलोकप्रिय विचार व्यक्त करने पर सज़ा दे.”

साल 2006 में भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत ‘अडल्ट्री’ यानी व्याभिचार ग़ैर-क़ानूनी था. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के तहत मिली आज़ादी उन मामलों पर लागू नहीं थी जो शादी के बाहर संबंध यानी अडल्ट्री की श्रेणी में आते थे.

शादीशुदा व्यक्ति और अविवाहत व्यक्ति के बीच, या फिर दो शादीशुदा लोगों के बीच लिव-इन रिलेशनशिप क़ानून की नज़र में मान्य नहीं था.

फिर साल 2018 में एक जनहित याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ‘अडल्ट्री’ क़ानून को ही रद्द कर दिया.

याचिका दर्ज करनेवाले वकील कालेश्वरम राज ने बीबीसी से बातचीत में इस फ़ैसले के लिव-इन रिलेशनशिप पर असर के बारे में बताया.

उन्होंने कहा, “अब कोई लिव-इन रिलेशनशिप इस वजह से ग़ैर-क़ानूनी नहीं करार दिया जा सकता कि वो ‘अडल्ट्री’ की परिभाषा में आता है. सुप्रीम कोर्ट के साल 2006 और 2018 के फ़ैसले एकदम साफ़ है और संविधान के आर्टिकल 141 के तहत उतने ही मज़बूत क़ानून हैं जैसे संसद या विधानसभा द्वारा पारित क़ानून.”

लेकिन देश की अदालतों में शादीशुदा व्यक्ति के बिना तलाक़ लिए लिव-इन रिलेशनशिप में होने की सूरत में कई बार उनके रिश्ते को अब भी ग़ैर-क़ानूनी बताया जा रहा है.

इसी साल अगस्त में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पुलिस सुरक्षा की एक याचिका बर्खास्त कर दी और 5,000 रुपए जुर्माना लगाते हुए कहा कि, “ऐसे ग़ैर-क़ानूनी रिश्तों के लिए पुलिस सुरक्षा देकर हम इन्हें इनडायरेक्ट्ली (अप्रत्यक्ष रूप में) मान्यता नहीं देना चाहेंगे.”

इसके फौरन बाद आए राजस्थान हाई कोर्ट के एक फ़ैसले में भी ऐसे रिश्ते को “देश के सामाजिक ताने-बाने के ख़िलाफ़” बताया गया.

कालेश्वरम राज कहते हैं, “क़ानून की जानकारी और समझ का अभाव एक बड़ा मुद्दा है जो आम जनता, पुलिस सबके बीच व्याप्त है. 2018 के ‘अडल्ट्री’ के फ़ैसले के एक साल बाद भी जब मैंने उत्सुकतावश भारतीय दंड संहिता पर बाज़ार में उपलब्ध कुछ किताबों पर नज़र डाली तो पाया कि सेक्शन 497 को उनमें से हटाया नहीं गया था.”

इसी साल सितंबर में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के सामने एक अविवाहित महिला और एक शादीशुदा मर्द ने उनकी पत्नी और परिवार से पुलिस सुरक्षा की याचिका दाखिल की.

हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के ‘अडल्ट्री’ को रद्द करनेवाले फ़ैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ताओं के हक में फ़ैसला दिया और पुलिस को सुरक्षा मुहैया करने की हिदायत दी.

कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा, “शादीशुदा होने के बावजूद लिव-इन रिलेशनशिप में रहना कोई गुनाह नहीं है और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शादीशुदा व्यक्ति ने तलाक की कार्रवाई शुरू की है या नहीं.”