गांव की गलियों से निकलकर अखाड़े के रास्ते सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाले मुलायम सिंह यादव ने हर मुकाम संघर्ष से हासिल किया। वह हर बार सधा हुआ दांव चलने में माहिर थे। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह के करीबी होने के कारण संगठन के कार्यों से उनका 70 के दशक में जिले से जुड़ाव हो गया था। धीरे-धीरे वह सबके चहेते बन गए थे। लंबे यशस्वी राजनीतिक जीवन में मुजफ्फरनगर से जुड़ी दो बड़ी घटनाओं ने उनकी छवि को गहरी ठेस पहुंचाई थी। भाजपा को सत्ता से बेदखल कर सूबे के मुखिया बने मुलायम सिंह को उस वक्त बड़ी कठिनाइयों और सवालों का सामना करना पड़ा, जब एक अक्तूबर 1994 की रात रामुपर तिराहे पर उत्तराखंड के आंदोलनकारियों पर पुलिस ने गोलियां चलाई थी। महिलाओं के साथ अभद्रता के मामलों में उनकी सरकार पर जवाब देते नहीं बना था। इसी घटना से पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग मजबूत हुई और प्रदेश दो हिस्सों में बंट गया।
2012 में सपा ने मायावती को सत्ता से बेदखल कर दिया। कम अनुभव के बावजूद नेताजी ने अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद की ताजपोशी करा दी थी। अभी अखिलेश की सरकार को एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि मुजफ्फरनगर में दंगा हो गया। दंगे से पहले जिले के बिगड़ते माहौल को शासन और प्रशासन के अफसर भांप नहीं पाए। जिसकी वजह से सात सितंबर 2013 को हुई हिंसा में 65 से ज्यादा लोगों की जान चली गई। संकट के हालातों में डैमेज कंट्रोल के लिए मुलायम सिंह यादव को खुद मोर्चा संभालना पड़ा। उन्होंने जिले में सेना भेज दी, जिसकी वजह से हिंसा थमनी शुरू हुई। साइलेंट वार पर कोई अंकुश नहीं लगने के कारण सपा सरकार की बड़ी किरकिरी हुई।
बेगुनाहों पर फर्जी मुकदमों से पश्चिमी यूपी में आक्रोश फैल गया। बागपत से शामली, मुजफ्फरनगर से मेरठ तक ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं और बेटियां गिरफ्तारी के विरोध में पुलिस के सामने आ डटी थीं। जैसे-जैसे सरकार ने बिगड़ी स्थितियां संभालीं, लेकिन तब तक बड़ा सियासी नुकसान हो चुका था। नेताजी चाहकर भी सपा की बिखरी ताकत को संभाल नहीं पाए और प्रदेश में भाजपा की लहर आ गई। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में दंगे के कारण ऐसा ध्रुवीकरण हुआ कि यूपी में भाजपा ने सबसे ज्यादा सीटें जीत लीं और नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बन गए। विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को समाजवादी पार्टी रोक नहीं पाई और डेढ़ दशक बाद सूबे में कमल खिल गया।