काबुल: अफगानिस्तान की सेना अपने गिरे मनोबल और जन समर्थन की कमी के कारण तालिबान का मुकाबला नहीं कर पाई। यहां के ज्यादातर रणनीतिक विश्लेषकों की यही राय है। अभी कुछ दिन पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भरोसा जताया था कि अफगानिस्तान के तीन लाख सुरक्षा बल तालिबान का मुकाबला करने में सक्षम साबित होंगे। उन्होंने कहा था कि इन बलों को अमेरिका ने ट्रेनिंग दी है और उन्हें आधुनिक हथियार भी दिए गए हैं। पिछले महीने बाइडन ने कहा था- ‘ये संभावना बेहद कम है कि तालिबान सब कुछ को कुचलते हुए पूरे देश पर कब्जा जमा लेगा।’
विश्लेषकों का कहना है कि अफगान सैनिकों के पास तालिबान की तुलना में बेहतर हथियार थे। उनकी ट्रेनिंग भी उच्च दर्जे की थी। लेकिन जब बीते हफ्ते तालिबान लड़ाकों ने हमलों की शुरुआत की, तो वे बिजली चमकने जैसी तेजी के साथ आगे बढ़ते चले गए। रविवार को उन्होंने राजधानी काबुल पर भी कब्जा जमा लिया। इस अभियान के दौरान उन्हें शायद ही कहीं मजबूत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कई जगहों पर तो हाथों में क्लाश्निकोव राइफलें लहराते हुए मोटर साइकिलों से चलने वाले तालिबान लड़ाकों ने अब आधुनिक हथियारों को अपने कब्जे में ले लिया है।
पूर्व पश्चिमी सैनिक अफसरों और स्वतंत्र टीकाकारों की राय है कि अफगान बलों की करारी हार का कारण अब देश छोड़ कर जा चुके राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार के प्रति लोगों में मौजूद विरोध भाव है। व्यापक भ्रष्टाचार और बदइंतजामी के कारण नाराज लोगों ने सेना का साथ नहीं दिया। लोगों में ये भरोसा ही नहीं था कि भ्रष्टाचार से ग्रस्त अफगान सेना तालिबान का मुकाबला कर पाएगी। अफगानिस्तान के युद्ध पर किताब लिख चुके पूर्व ब्रिटिश सैनिक अधिकारी माइक मार्टिन ने ब्रिटिश अखबार द फाइनेंशियल टाइम्स से कहा- ‘अफगान सेना के साथ समस्या हथियारों या ट्रेनिंग की कमी की नहीं थी। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू होता है युद्ध की राजनीति। उसका सरकारी पक्ष के पास अभाव था।’
विश्लेषकों के मुताबिक ज्यादातर अफगान जनता जातीय, कबिलाई और पारिवारिक संबंधों के बीच रहती है। इसलिए जब अमेरिका ने अपने सैनिक वापस बुलाने की घोषणा की, तो नई बनी अफगान सेना के एक हिस्से ने तालिबान के साथ बातचीत शुरू कर दी। इस वजह से बड़ी संख्या में सैनिकों ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। मार्टिन ने कहा- ‘तालिबान अफगान सरकार की परतें उघाड़ने में सफल रहा, क्योंकि सरकार का कबीलों, पारंपरिक खानदानों और जातीयता के साथ पर्याप्त जुड़ाव नहीं था। यह मूलभूत मुद्दा है। तालिबान से क्षमादान मांग कर सैनिक कमांडरों ने समर्पण कर दिया। तालिबान ने उन्हें क्षमा करते हुए घर जाने की इजाजत दे दी।’
जर्मन थिंक टैंक अफगानिस्तान एनालिस्ट्स नेटवर्क के अफगानिस्तान स्थित कंट्री डायरेक्टर अली यावर आदिली ने द फाइनेंशियल टाइम्स से कहा कि अमेरिका ने अचानक जिस तेजी से अपने फौजी लौटाए, उससे अफगान बल सकते में रह गए। राष्ट्रपति गनी सहित बहुत से अफगानियों को ये अंदाजा नहीं था कि अमेरिका ऐसा करेगा। उन्होंने कहा- ‘अफगान सैनिक अमेरिकी वायु सेना के समर्थन पर काफी निर्भर थे। अमेरिकी ठेकेदार उन्हें साजो-सामान की सहायता देते थे। उस पर भी उनकी निर्भरता थी। अब ये सहारा उनके साथ नहीं रह गया था।’
विश्लेषकों का कहना है कि जब ये बात साफ हो गई कि अमेरिकी सैनिकों से अब कोई सहायता नहीं मिलेगी, तो अफगान फौजी या तो भाग खड़े हुए या फिर उन्होंने तालिबान के आगे समर्पण कर दिया।