बुढ़ाना (मुजफ्फरनगर)। जनपद में सात सितंबर वर्ष 2013 में हुई सांप्रदायिक हिंसा को हुए आठ साल का लंबा अरसा बीत चुका है, लेकिन आज भी घर-गांव छोड़कर विस्थापित हुए दंगा पीड़ित उन खौफनाक लम्हों को नहीं भूल पा रहे हैं। आज भी बड़ी संख्या में दंगा पीड़ित विस्थापित कॉलोनी में रह रहे हैं। पीड़ितों ने दर्द बयां करते हुए कहा कि गांव की गलियां याद तो बहुत आती हैं, लेकिन घर वापसी की कोशिशों को दंगे का खौफ रोक लेता है।

जनपद में सात सितंबर 2013 को नंगला मंदौड़ में आयोजित बहू-बेटी सम्मान बचाओ, महापंचायत से लौटते लोगों पर चरणबद्ध तरीके से जनपद के कई क्षेत्रों में हमले किए गए थे। इसके प्रतिरोध में उसी रात देहात क्षेत्र के गांवों में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी। हिंसा की उस आग में जनपद के बुढ़ाना व शामली क्षेत्र के आधा दर्जन गांवों से सैकड़ों परिवार रातो-रात अपना घर-बार छोड़कर राहत शिविरों में चले गए थे। जबरदस्त ठंड और बारिश में मुजफ्फरनगर-शामली जनपद के करीब 900 परिवार राहत शिविरों में खुले आसमान के नीचे महज तिरपाल में रहने को मजबूर हो गए थे।

इसके बाद, जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा इन पीड़ितों को जनपद में कई स्थानों पर विस्थापित कॉलोनियां बनाकर वहां घर मुहैया करा दिए थे। शासन की ओर से भी हर दंगा पीड़ित परिवार को सहायता राशि उपलब्ध कराई गई थी, तभी से पीड़ित ये परिवार विस्थापित कॉलोनियों में सीमित दायरे में रहकर गुजर-बसर कर रहे हैं। गांव परासौली स्थित ऐसी ही विस्थापित कॉलोनी फलाह-ए-आम के दंगा पीड़ित अपनी व्यथा बताते हुए रो पड़े।

विस्थापित कॉलोनी में रहने वाले बुढ़ाना क्षेत्र के गांव हसनपुर निवासी इमरान का कहना है कि दंगे के बाद परिवार के साथ राहत शिविर में शरण ली थी, तभी से आज तक गांव की यादें जेहन से नहीं जाती। पैतृक घर-बार व गांव छोड़कर परिवार आज तक मूलभूत सुविधाओं के लिए भटक रहा है। घर लौटने को मन करता है, लेकिन उस रात का खौफ चैन से सोने नहीं देता।

शाहपुर क्षेत्र के गांव कुटबी निवासी मंजूरा का कहना है कि अपना घर-बार व गांव छोड़कर पूरा परिवार परेशान है। कभी मजदूरी नहीं मिलने के कारण भूखे पेट सोना पड़ता है। गांव में रहते हुए कभी ऐसी स्थितियां सामने नहीं आईं, लेकिन यहां कोई पूछने वाला नहीं है। आज भी गांव की बहुत याद आती है, लेकिन दंगे की वो रातें जेहन से नींद तक छीन लेती हैं।
गांव फुगाना निवासी यामीन का कहना है कि अपने गांव में रहते हुए कभी भी मान-सम्मान में कमी नहीं रही। वह गांव में रहकर मजदूरी करता था, लेकिन इसके बावजूद सभी लोग उनके परिवार के सुख-दुख में शामिल होते थे। वह अब भी मजदूरी करता है, लेकिन गांव छूटने के बाद वह मान-सम्मान कहीं खो गया है। कभी-कभी मन करता है कि फिर से पुराने घर लौट जाऊं, पर दंगे का खौफ लौटने नहीं देता।

गांव लिसाढ़ निवासी तैय्यब को गांव की याद आते ही आंखों में पानी आ गया। उसने बताया कि उसका गांवों में कपड़े का कारोबार था। लेनदेन अच्छा था। गांव वालों से समय पर काम का पैसा मिल जाता था। सांप्रदायिक दंगे की आग में सब कुछ खत्म हो गया। गांव की बहुत याद आती है। उसके बताया कि एक वर्ष पहले उसकी पत्नी की मौत की खबर सुनकर लिसाढ़ गांव के दर्जनों ग्रामीण उसकी खैर-खबर लेने आए थे।

कुछ यही कहानी विस्थापित कॉलोनी में रहने वाले दंगा पीड़ितों गांव फुगाना निवासी यामीन, इशाक, सद्दाम के साथ ही गांव हसनपुर निवासी शहीद, अनीस, तैय्यब, मुस्तकीम, वकार व नौशाद और गांव बहावड़ी निवासी मोहसिन व नौशाद की है। ये सभी लोग गांव के पुराने मंजर को तो याद करते हैं, लेकिन वहां फिर से लौटने की बात पर इंकार कर देते हैं।

सांप्रदायिक दंगे में अपने घर-बार छोड़कर राहत शिविरों में गए सैकड़ों परिवारों से इतर ऐसा भी परिवार है, जो उन हालातों में भी अपना घर छोड़कर नहीं गया। गांव फुगाना निवासी शकूरा का कहना है कि वह भी गांव छोड़ना चाहता था, लेकिन ग्रामीणों ने सुरक्षा का भरोसा देते हुए उसे रोक लिया। आज भी उसे गांव में वही पहले जैसा प्यार व सम्मान मिल रहा है। उसके पास काम की भी कोई कमी नहीं है। सभी लोग उसका व परिवार का ख्याल रखते हैं। समय के साथ-साथ दोनों वर्गों के लोगों में फिर से एक-दूसरे के प्रति प्यार-सद्भाव बढ़ रहा है। ऐसे में वो दिन दूर नहीं, जब फिर से दोनों वर्गों के लोग एक-दूसरे की खुशियों में शामिल होंगे।