मुजफ्फरनगर। रूपहले पर्दे पर गदर देखकर लोगों की रुह कांप रही है। लेकिन जिले में ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपनी आंखों के सामने गदर देखा। कत्लोगारत हुआ, अपने खो दिए, लेकिन फिर भी कभी हौसला नहीं हारा। बचपन जद्दोजहद में गुजरा। वर्ष 1947 के असली गदर का जिक्र छिड़ते ही आंखों में नमी तैर जाती है। बंटवारा होते ही किस तरह भाईचारा बिखर गया। लोग भाग रहे थे और मर रहे थे।
शहर की गांधी कॉलोनी में रह रहे टीएस गंभीर (84) बताते हैं कि पाकिस्तान के नौशेरा में परिवार रहता था। बंटवारे से पहले मां-बाप मर चुके थे, बाबा और दादी सहारा थे। हमले शुरू हुए तो पिता की अस्थियां भी घर में ही छोडऩी पड़ी। हिंदुस्तान की तरफ चले तो रास्ते में मेरे ऊपर हमला हुआ तो दादी सामने आ गई। सिर में गोली लगने से उसकी मौत हो गई। किसी तरह चिता जलाई, हम दादी की जलती चिता छोड़कर जान बचाकर भागे। जब यहां आया आठ साल का था। बस हौसला नहीं हारा। लोगों की दरी बिछाई। पानी खींचा, मजदूरी के सब काम किए। हमारा इतिहास, संस्कृति बंट गए। सिखों का ननकाना साहिब पाकिस्तान में चला गया। जब तक जिंदा हैं इन जख्मों को भुला नहीं पाएंगे।
शहर के द्वारिकापुरी के रहने वाले ओमप्रकाश मलिक (88) कहते हैं कि पाकिस्तान के मियावाली जिले के पीपला में परिवार रहता था। जब बंटवारा हुआ तो मैं कक्षा छह में था। हम स्कूल की प्रार्थना में सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा बोला करते थे। बंटवारा हुआ तो हमारे ऊपर हमले शुरू कर दिए। हमारे 18 परिवार पीपला से एक साथ निकले थे। कत्लेआम शुरू होने से पहले हम ट्रेन से पटियाला पहुंच गए थे। हमारे चाचा और उनके परिवार को घर से निकलने में देर हो गई तो उन्हें रेलवे स्टेशन पर ही मार दिया गया। लाशों के बीच में कुछ लोग जिंदा बच गए थे, उनमें चाचा का एक लड़का भी था, वह किसी तरह बच गया था। पटियाला में पाकिस्तान से आने वाली लाशों के ढेर हमने अपनी आंखों से देखे हैं। हम आठ भाई बहन थे। पटियाला कैंप में बिछुड़ गए थे। बाद में किसी तरह सब लोग मुजफ्फरनगर आ गए। बंटवारे की वे घटनाएं आज भी हमारी आंखों में तैरती हैं।