सितंबर 2013. शामली का लिसाढ़ गांव। आस-पास के इलाकों में 62 और इस गांव में 13 लोगों की मौत हुई। सैकड़ों लोग घायल हुए। लेकिन 10 साल पहले खून, चीथड़ों और चीखों से दहला हुआ शहर अब धीरे-धीरे नॉर्मल होने लगा है। रौनकों में डूबने लगा है। एक रोज खून से सनी सड़कों पर अब गाड़ियां फर्राटे भरने लगी हैं। पर हादसे में अपनों को खो चुके परिवार अब भी साल 2013 के सितंबर में अटके हैं।

गांव में 7 सितंबर की शाम तक सब ठीक था। तभी कुछ लोग पंचायत से लौटे। हाथ में लाठी-डंडे और तलवारें थीं। उन्होंने मुसलमान घरों को चुन-चुनकर आग लगा दी। जो भाग सकते थे, वह घर छोड़कर भाग गए। लेकिन 13 लोग नहीं भाग पाए, वे सभी मारे गए। 11 लोगों की लाशें आज 10 साल बीत जाने के बाद भी नहीं मिलीं। जो 2 लाशें नहर में मिली, वे गांव से 30 किलोमीटर दूर मिलीं।

इस घटना के बाद कोई भी मुस्लिम परिवार वापस लिसाढ़ नहीं गया। सभी विस्थापित हो गए। इन सबका कोई कसूर नहीं था। फिर भी मुजफ्फरनगर दंगे की आग में झुलस गए। दंगे को आज 10 साल हो गए। कल हमने आपको मुजफ्फरनगर दंगे की शुरुआती कहानी बताई थी। आज हम दंगे और उसके बाद हुई बर्बादी की दास्तां जानेंगे…

27 अगस्त, 2013 को मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में सचिन-गौरव और शाहनवाज की हत्या हुई। 28 अगस्त को सचिन-गौरव के अंतिम संस्कार से लौटी भीड़ ने कवाल गांव में मुस्लिमों के घरों में तोड़फोड़ की। 30 अगस्त को मुस्लिम पक्ष ने मुजफ्फरनगर शहर के शहीद चौक पर बड़ी सभा की। जमकर भड़काऊ बयानबाजी हुई। 31 अगस्त को जाटों ने पंचायत की। सरकार को अगले 7 दिन में आरोपियों की गिरफ्तारी और सचिन-गौरव के परिवार के लोगों पर लगे केस को हटाने का अल्टीमेटम दिया। केस नहीं हटा, तो 7 सितंबर को नगला मंदौड़ स्थित भारतीय किसान इंटर कॉलेज में बहू-बेटी बचाओ पंचायत का आयोजन हुआ।