
लखनऊ। रामचरितमानस की जिस चौपाई पर विवादित बयान देकर स्वामी प्रसाद मौर्य ने सियासी पारे को गर्म कर दिया दरअसल उसी चौपाई को कभी बसपा भी सियासत में आगे रखती थी। सियासी जानकारों का मानना है कि बसपा के उसी एजेंडे को अब स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी के प्लेटफार्म से न सिर्फ आगे बढ़ा रहे हैं, बल्कि जातिगत समीकरणों के नए वोट बैंक की एक नई परिभाषा सपा के लिए गांठ रहे हैं। समाजवादी पार्टी की इस नई वोट की परिभाषा से सपा के ब्राह्मण नेता न सिर्फ असहज महसूस कर रहे हैं, बल्कि इसे भविष्य की राजनीति के लिहाज से मुफीद नहीं मान रहे हैं। सियासी जानकार भी समाजवादी पार्टी के इसमें समीकरण को अपने नए नजरिए से देख रहे हैं।
समाजवादी पार्टी इस वक्त सियासत में अपने नए कलेवर को लेकर दो तरह से आगे बढ़ रही है। एक वह है जिसमें समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस की चौपाई पर विवादित बयान देकर पार्टी को एक नए रास्ते की बढ़ा दिया। दूसरा खुद समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की जातिगत जनगणना वाले मुद्दे के साथ आगे बढ़ने वाला सियासी दांव है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बसपा से लेकर भाजपा तक का चक्कर लगाने के बाद समाजवादी पार्टी में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्य ने जिस तरीके से रामचरितमानस की चौपाई को लेकर विवादित बयान दिया है। दरअसल वह तो बसपा का पैंतीस साल पुराना मुद्दा है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक बृजेश शुक्ला कहते हैं कि 1986-87 में जब बसपा को स्थापित करने का दौर था, तो काशीराम समेत तमाम बसपा के कैडर से जुड़े हुए लोग और कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में रामचरितमानस की इसी चौपाई को लेकर अपने संगठन को मजबूत करने की अभियान चलाते थे। वह कहते हैं कि बसपा ने इसे लंबे समय तक न सिर्फ मुद्दा बनाया बल्कि जातिगत समीकरणों के आधार पर अपना वोट बैंक भी जोड़ा।
बृजेश शुक्ला कहते हैं कि बसपा से आकर भाजपा में गए और फिर भाजपा से समाजवादी पार्टी में आए स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा के उसी एजेंडे को अब समाजवादी पार्टी के प्लेटफार्म से आगे बढ़ा रहे हैं। शुक्ला कहते हैं कि रामचरितमानस की चौपाई पर दिए गए विवादित बयान का सियासी नफा नुकसान किसका होता है और कितना होता है, यह तो आने वाले चुनाव में पता चलेगा। लेकिन एक बात तय है कि समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की इस लाइन से पार्टी में ब्राह्मण नेताओं के बीच में नाराजगी पनपने लगी है। पार्टी से जुड़े कई वरिष्ठ ब्राह्मण नेताओं ने स्वामी प्रसाद मौर्य के रामचरितमानस पर दिए गए विवादित बयान का विरोध भी किया था। राजनीतिक विश्लेषक बृजेश शुक्ला कहते हैं कि जिस चौपाई को लेकर स्वामी प्रसाद मौर्य ने विवादित बयान दिया उसका समाजवादी पार्टी में कितना फायदा होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन पार्टी के ही ब्राह्मण नेताओं के विरोध से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि कहीं सपा को ब्राह्मणों की नाराजगी का खामियाजा न भुगतना पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ब्राह्मण-ठाकुर वोट शुरुआत से ही भाजपा का कोर वोट बैंक रहा है। सियासी जानकारों का कहना है कि जो ब्राह्मण या ठाकुर भाजपा से कुछ हद तक नाराज भी होकर किसी दूसरी पार्टी में जाते हैं, तो वह समाजवादी पार्टी ही है। समाजवादी पार्टी में ब्राह्मणों की हिस्सेदारी और ब्राह्मणों को मिली जिम्मेदारी इस बात की गवाह है कि पार्टी में मुस्लिम, यादव फैक्टर के बाद ब्राह्मणों की स्वीकार्यता भी रही है और ब्राह्मणों के वोट समाजवादी पार्टी को मिलते रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक जेएस सिंह कहते हैं कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस पर विवादित बयान देकर सियासत के लिहाज से चुनौती भरा दांव तो खेला ही है। सपा को अनुमान है कि इस नए सियासी दांव से बसपा के बड़े वोट बैंक पर दावेदारी कर उसे अपने साथ जोड़ सकी। लेकिन राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि समाजवादी पार्टी को इस बड़े और नए सियासी दांव पर फूंक-फूंक कर कदम भी रखना होगा।
बसपा से जुड़े रहे वरिष्ठ कैडर कहते हैं कि समाजवादी पार्टी का यह दांव उनको उल्टा पड़ने वाला है। विस्तार से समझाते हुए उन्होंने कहा कि पार्टी का एक प्रमुख वोट बैंक अभी भी उनके साथ जुड़ा हुआ है। हालांकि वह इस बात को स्वीकार करते हैं कि 2007 में बनी उनकी सरकार के वक्त जो सियासी समीकरण थे, वह इस वक्त उनके साथ नहीं है। लेकिन रामचरितमानस की जिस चौपाई को लेकर स्वामी प्रसाद मौर्य ने नया सियासी बखेड़ा शुरू किया है, उसका समाजवादी पार्टी को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। वह खुलकर कहते हैं कि जो ब्राह्मण और ठाकुर वोट समाजवादी पार्टी को मिलता था वह भी इस नए बखेड़े से पार्टी से दूर चला जाएगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जिस तरीके से अखिलेश यादव ने एमवाई फैक्टर के साथ-साथ इस बार गांव-गांव में जातिगत जनगणना को आगे बढ़ाने की योजना बनाई है उससे यह सवाल उठ रहे हैं क्या समाजवादी पार्टी सवर्णों को नजरअंदाज कर रही है। क्योंकि समाजवादी पार्टी की बनाई गई नई कार्यकारिणी ने इस बार सवर्णों को खास तवज्जों भी नहीं मिली है। रही सही कसर स्वामी प्रसाद मौर्य अपने बयानों से ब्राह्मणों को निशाने पर लेकर पूरी कर रहे हैं।
सियासी जानकार अनिरुद्ध कहते हैं कि समाजवादी पार्टी के नए सियासी समीकरणों में सवर्णों को खास तवज्जो ना मिलने का फायदा भाजपा को सीधे तौर पर हो सकता है। जबकि बसपा के दलित वोट बैंक को साधने के लिए जिस ‘शूद्र राजनीति’ पर दांव खेला जा रहा है उसमें अब बड़ा वोट बैंक भाजपा के साथ में है। वह कहते हैं कि ऐसे में समाजवादी पार्टी को उनकी इस नई सियासत का फायदा तभी हो सकता है, जब भाजपा से दलित वोट बैंक छिटककर बसपा की ओर न जाकर सपा की ओर आ जाएं। इसके अलावा रामचरितमानस पर दिए गए सपा नेता के विवादित बयान के बाद भी सवर्ण वोट समाजवादी पार्टी से अलग ना हो और पिछड़ों में भी समाजवादी पार्टी भाजपा के वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी कर ले। तब तो सियासत का यह नया दांव समाजवादी पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकता है। लेकिन सियासी विश्लेषकों का मानना है कि ऐसा फिलहाल कहीं पर से होता हुआ नहीं दिख रहा है। बल्कि सपा के नेता की रामचरितमानस पर की गई विवादित टिप्पणी से सपा के साथ जुड़ा हुआ ब्राह्मण और उनकी पार्टी से जुड़े हुए नेता भी नाराज बताए जा रहे हैं। रही बात जातिगत जनगणना की, तो उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ने पिछड़ों अति पिछड़ों का साथ देते हुए जातिगत जनगणना का समर्थन किया है। ऐसे में सपा और भाजपा दोनों राजनैतिक दल लोकसभा चुनावों से पहले सियासी काट के साथ चुनावी मैदान में उतर चुके हैं।
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