मेरठ । आजादी से 2019 तक पश्चिमी यूपी के सियासी रण में बड़े-बड़े मुकाबले देखने को मिले हैं। इन महामुकाबलों में कई चेहरों ने इतिहास रचा तो वहीं मायावती, कांशीराम और भारत रत्न चौधरी चरण सिंह तक ने चुनाव में मात खाई है। पढ़िए अमर उजाला की खास रिपोर्ट।
आजादी से पहले और बाद भी, राजनीतिक दृष्टिकोण से पश्चिम उत्तर प्रदेश देश में हमेशा सुर्खियों में रहा। यहां से राजनीति का ककहरा पढ़कर कई दिग्गजों ने इतिहास रच दिया तो अनेकों सूरमाओं ने मात भी खाई। भारत रत्न चौधरी चरण सिंह मुजफ्फरनगर से पहला चुनाव हार गए। बसपा अध्यक्ष मायावती कैराना, बसपा संस्थापक कांशीराम सहारनपुर और अजित सिंह बागपत में ही मतदाताओं की नब्ज पकड़ने में चूक गए थे। साल 1977 में मेरठ में कैलाश प्रकाश ने तत्कालीन सांसद शाहनवाज खान को चित कर दिया था। वर्ष 1980 और 1984 में मोहसिना किदवई ने लगातार दो चुनाव मेरठ से जीते, लेकिन इसके बाद जनता दल से हरीश पाल ने 1989 में मोहसिना किदवई को हरा दिया। मेरठ के मुकाबले दिलचस्प रहे। प्रस्तुत है चुनाव डेस्क की रिपोर्ट।
मेरठ को पश्चिम उप्र की राजनीति का केंद्र कहा जाता है। 1952 के लोकसभा चुनाव में मेरठ को तीन लोकसभा सीटों में बांटा हुआ था। 1957 में तीनों सीटों को मिलाकर एक सीट मेरठ लोकसभा बनाई गई। इसके बाद से 2019 तक 17 बार मेरठ लोकसभा सीट पर चुनाव हुआ है। 2024 में 18वीं बार लोकसभा सदस्य का चुनाव होगा।
17 बार के चुनाव में मेरठ की जनता ने जहां तीन बार बाहरी व्यक्ति पाकिस्तान रावलपिंडी जिले के गांव मटौर निवासी शाहनवाज खान को संसद भेजा। इनके अलावा मोहसिना किदवई, अवतार सिंह भड़ाना को भी बाहरी व्यक्ति होने के बाद भी मेरठ की जनता ने भरपूर प्यार दिया। मोहसिना किदवई दो बार और अवतार सिंह भड़ाना को एक बार मेरठ के सांसद बने। भाजपा के राजेंद्र अग्रवाल लगातार तीन बार दिग्गजों को हराकर हैट्रिक लगा चुके हैं।
मेरठ की क्रांतिकारी धरा के मतदाताओं ने बाहरी प्रत्याशियों के सापेक्ष स्थानीय नेताओं को भी सम्मान दिया। रिकॉर्ड के अनुसार 17 में से 11 बार चुनाव मैदान में उतरे कांग्रेस, बसपा, भाजपा, जनता दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के स्थानीय प्रत्याशियों को जिताकर लोकसभा भेजा।
देश की सत्ता में सिरमौर रहे भारत रत्न चौधरी चरण सिंह ने पहला लोकसभा चुनाव वर्ष 1971 में मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से लड़ा था। सीपीआई के ठाकुर विजयपाल सिह के सामने उन्हें हार का सामना करना पड़ा। विजयपाल सिंह को 203193 और चरण सिंह ने 1,52,914 वोट हासिल किए थे। इससे पहले किसी भी लोकसभा चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे प्रत्याशी ने एक लाख वोट हासिल नहीं किए थे। हार के बाद चौधरी चरण सिंह ने बागपत का रुख किया था।
1989 ने मुफ्ती मोहम्मद सईद ने चुनाव जीता था। इसके बाद वे केंद्र में गृहमंत्री बनाए गए। साल 1991 में भाजपा के नरेश बलियान ने सईद को हरा दिया। भाजपा का मुजफ्फरनगर में खाता खुला। इसके बाद मुफ्ती मोहम्मद जिले की राजनीति में नहीं लौटे। वहीं वर्ष 2004 में मेरठ से देो बार सांसद रहे अमरपाल सिंह को सपा के मुनव्वर हसन ने हराया। 2009 में अनुराधा चौधरी को भी हार का सामना करना पड़ा।
दंगे के बाद पश्चिम की सियासत में नए समीकरण बनें। वर्ष 2019 में रालोद अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा। भाजपा प्रत्याशी डॉ. संजीव बालियान ने 573780 और अजित सिंह ने 567254 वोट हासिल किए। सिर्फ 6526 वोट से रालोद अध्यक्ष हार गए थे। इस मुकाबले पर सबकी नजर टिकी थी।
1980 में वीआईपी मुकाबला हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने अपनी पत्नी गायत्री देवी को कैराना से उम्मीदवार बनाया, जबकि कांग्रेस आई ने यूपी के डिप्टी सीएम रहे नारायण सिंह को मैदान में उतार दिया। जनता दल एस से चुनाव लड़ी गायत्री देवी को 2,03,242 और कांग्रेस के नारायण सिंह को 1,43,761 वोट हासिल हुए थे।
कैराना में हसन परिवार की पहली जीत 1984 में हुई। कांग्रेस के अख्तर हसन ने 236904 वोट लेकर जीत दर्ज की। दूसरे स्थान पर लोकदल के श्याम सिंह रहे थे। निर्दलीय मायावती को सिर्फ 44445 वोट मिले थे। मायावती ने कैराना से फिर चुनाव नहीं लड़ा। जिस वक्त मुन्नवर हसन का निधन हुआ, वह बसपा के ही सांसद थे।
वर्ष 1998 में वीरेंद्र वर्मा ने मुनव्वर हसन को हराकर भाजपा का खाता खोला था। इससे पहले भाजपा ने वर्ष 1991 और 1993 में उदयवीर सिंह को टिकट दिया था, लेकिन नजदीक अंतर से दोनों बार हार मिली थी। वर्मा का यह चुनाव भी राजनीतिक हल्कों में चर्चा का केंद्र रा रहा। इसके बाद उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा।
कैराना से पहला चुनाव हार चुकीं मायावती ने वर्ष 1989 में जीत दर्ज की थी। उन्होंने मंगलराम प्रेमी को हराया था। दिलचस्प बात यह है कि दो साल बाद 1991 में भाजपा से चुनाव लड़े मंगलराम प्रेमी ने मायावती को पराजित कर दिया। 1996 में बसपा ने चेतन स्वरूप को टिकट दिया, लेकिन वह भी हार गए। इसके बाद बसपा ने दोबारा 2019 में मलूक नागर की जीत के साथ ही वापसी की थी। इससे इतर जनता ने रविदास मंदिर के महंत स्वामी रामानंद शास्त्री को 1952, 1967 और 1971 में बिजनौर लोकसभा सीट से सांसद बनाया।
राजनीति के दिग्गज रामचंद्र विकल 1971 में बागपत से सांसद थे। 1977 में चौधरी चरण सिंह ने लोकसभा चुनाव की पहली जीत विकल को हराकर ही हासिल की थी। वर्ष 1984 में चौधरी चरण सिंह के सामने राजनारायण ने चुनाव लड़ा और तीसरे स्थान पर रहे। नामांकन के दिन दोनों एक साथ पहुंच गए थे। चौधरी चरण सिंह यह कहते हुए पीछे हट गए थे कि राजनारायण बागपत के अतिथि हैं, इसलिए पहले वही नामांकन करेंगे। 1998 में भाजपा के सोमपाल शास्त्री ने अजित सिंह को हरा दिया था। सांसद सत्यपाल सिंह ने 2014 में अजित सिंह और 2019 में जयंत सिंह को हराया।
1998 में बसपा संस्थापक कांशीराम खुद यहां से मैदान में उतरे थे। उनके सामने भाजपा के नकली सिंह चुनाव लड़ रहे थे। नकली सिंह ने 275103 वोट हासिल कर कांशीराम को हराया था। कांशीराम को 215267 वोट मिले थे। जीत का अंतर 59836 रहा था। इससे पहले वर्ष 1984 में कांग्रेस के यशपाल सिंह ने दो बार के सांसद रहे रशीद मसूद को 50 कांशीराम हजार से अधिक वोट से हराया था। 1989 में फिर रशीद मसूद ने यशपाल सिंह को हराया।
1989 में रशीद मसूद ने कांग्रेस के यशपाल सिंह को 119768 वोटों से हराया था। यह अब तक की सबसे बड़ी जीत है। सबसे छोटी जीत की बात करें तो वह 1996 की थी। वह भी रशीद मसूद के नाम ही है। भाजपा के नकली सिंह ने सपा प्रत्याशी रशीद मसूद को मात्र 2499 वोटों से हराया था। मसूद ने 10 बार लोकसभा का चुनाव लड़ा। साल 1977, 80, 84, 89, 91, 96, 98, रशीद मसूद 99, 2004 और 2009 में किस्मत आजमाई। उन्हें पांच बार जीत और पांच बार शिकस्त मिली।