पिछले कुछ सालों में भारतीय क्रिकेट टीम के ज्यादातर खिलाड़ी छोटे शहरों और कस्बों से ज्यादा आए हैं. जब वो टीम में चुने जाते हैं तो अंग्रेजी में उनका बोलना बहुत तंग या मुश्किल होता है लेकिन कुछ ही समय बाद यही क्रिकेटर इतने फर्राटे ये भाषा बोलते हैं कि हर कोई चकित रह जाता है.आखिर इसका राज क्या है.
भारतीय क्रिकेट टीम में आधे से ज्यादा खिलाड़ी छोटे कस्बों या शहरों और मामूली बैकग्राउंड से आते हैं. वो आमतौर पर ऐसे घरों के होते हैं जिसमें अंग्रेजी बोलने का सवाल ही नहीं उठता. अंग्रेजी बोलना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी होती है लेकिन भारतीय टीम में आते ही वो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगते हैं. आखिर ऐसा कैसे हो जाता है.
मौजूदा टीम इंडिया में चाहे यजुवेंद्र चहल हों या मावी या धोनी, या फिर विराट कोहली हों या फिर चेतेश्वर पुजारा, या मोहम्मद शमी या पृथ्वी शॉ?ये सभी खिलाड़ी अब जब प्रेस से रू-ब-रू होते हैं तो फर्राटे से अंग्रेजी में मीडिया के सवालों के जवाब देते हैं लेकिन इनके साथ हमेशा ऐसा नहीं था. कभी इन्हें प्रेस के सामने आने में इसलिए दिक्कत होती थी, क्योंकि ये अंग्रेजी बहुत फर्राटेदार तरीके से नहीं बोल पाते थे.
मैचों के दौरान अब जब कमेंटेटर्स उनके रिएक्शंस लेते हैं तो बगैर झिझक इस तरह अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलते हैं कि किसी को अंदाज भी नहीं होता कि करियर के शुरुआत में वो इस भाषा में बहुत तंग थे. अंग्रेजी बोलने में उन्हें झिझक होती थी.
कपिल देव जब भारतीय क्रिकेट टीम में आए थे तो उन्हें लंबे समय तक इंटरनेशनल दौरों में मीडिया से बात करने के दौरान अंग्रेजी की झिझक का सामना करना पड़ा. फिर उन्होंने इसके लिए बकायदा एक प्राइवेट ट्यूटर लगाया था.
ढाई तीन दशक पहले तक छोटे शहरों या मामूली बैकग्राउंड से नेशनल टीम में आने क्रिकेटरों के लिए अंग्रेजी भाषा बड़ा हौवा थी. उन्हें सबसे बड़ा डर यही लगता था कि वो प्रेस कांफ्रेंस का सामना कैसे करेंगे. लेकिन अब ऐसा नहीं होता.
उमेश यादव और हार्दिक पांड्या जैसे क्रिकेटर जब टीम इंडिया में सेलेक्ट किए गए, तो उन्हें इंग्लिश से इस कदर डर लगता था कि वो प्रेस कॉन्फ्रेंस और रिपोर्टरों से बात करने से कन्नी काटते थे कि कहीं उनसे अंग्रेजी में सवाल ना पूछ लिया जाए. पिछले दिनों लोग इस बात पर हैरान हो रहे थे कि यजुवेंद्र चहल इतनी अच्छी अंग्रेजी कैसे बोलने लगे हैं.
मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम या पिछले 10-15 सालों की भारतीय टीम में तमाम ऐसे क्रिकेटर आए जो दसवीं भी पास नहीं हैं लेकिन अब वही जब वे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं तो हैरानी होती है कि ऐसा कैसे हो गया. इसके पीछे आखिर क्या राज है.
केवल यही नहीं आमतौर पर टीम इंडिया में कम ही क्रिकेटर होंगे, जो ग्रेजुएट भी हों. ज्यादातर अपनी पढ़ाई हाईस्कूल या इंटर करते हुए बीच में ही छोड़ देते हैं.
दरअसल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) पिछले कुछ सालों से इस पहलू पर खास ध्यान देता रहा है. वो ऐसे सभी क्रिकेटरों के पर्सनालिटी डेवलपमेंट और इंग्लिश स्पिकिंग के सेशन आयोजित करता है. उन्हें इसके लिए दौरों में भी कोच उपलब्ध कराए जाते हैं. साथ ही फोन के जरिए भी इंग्लिश स्पीकिंग सुधारने में मदद की जाती है.
बीसीसीआई खास ध्यान देता है कि टीम इंडिया में जिन क्रिकेटरों का चयन किया जा रहा है वो न केवल तरीके से अंग्रेजी बोल सकें बल्कि उनका पर्सनालिटी डेवलपमेंट भी हो.
बीसीसीआई मानता है कि भारतीय क्रिकेटरों को मीडिया ब्रीफिंग के अलावा विदेशी दौरों में लोगों से मिलना जुलना होता है, कई तरह के समारोहों में हिस्सा लेना होता है, लिहाजा अंग्रेजी भाषा की प्रवीणता उसकी पर्सनालिटी और आत्मविश्वास को और बेहतर करेगी.
एमएस धोनी को इस सीज़न की सबसे इनोवेटिव थिंकिंग के लिए पुरस्कार से नवाज़ा गया. (BCCI)एमएस धोनी जब शुरू में टीम में आए तो उन्हें भी अंग्रेजी बोलने में समस्या होती थी लेकिन जल्दी ही उन्होंने इसे दूर कर लिया
महेंद्र सिंह धोनी जब शुरुआत में टीम में आए तो उनके साथ भी यही समस्या थी लेकिन फिर उन्होंने साथी खिलाड़ियों के जरिए अपनी इंग्लिश को सुधारा.
वीरेंद्र सहवाग और प्रवीण कुमार जैसे क्रिकेटर तो लंबे समय तक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही जाने से बचते थे और अगर जवाब देते भी थे तो हिन्दी में देते थे और बीसीसीआई का इंटरप्रेटर या मैनेजर उन्हें बताता था कि सवाल में क्या पूछा गया है. प्रवीण कुमार तो अक्सर राहुल द्रविड़ को खुद के बदले आगे कर देते थे.
बीसीसीआई केवल क्रिकेटरों ही नहीं बल्कि भारतीय अंपायरों के लिए भी पिछले कुछ सालों से इंग्लिश लेंग्वेज प्रोग्राम शुरू किया है ताकि अंग्रेजी भाषा में उनकी बातचीत का स्तर सुधर सके, वो इंटरनेशनल प्लेयर्स से इंटरेक्ट कर सकें. पहली बार अंपायरों के लिए बीसीसीआई ने वर्ष 2015 में ऐसा कोर्स शुरू किया था.
अंपायरों को इंग्लिश सिखाने के लिए बीसीसीआई ने जो कोर्स शुरू किया था, वो पांच दिन का था, इसमें अंपायरों को कई बैचों में बांटा गया था. इस कोर्स को बीसीसीआई ने इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल के साथ ब्रिटिश काउंसिल की मदद से तैयार किया था.